कबीर साहेब के दोहे | गुरु शिष्य प्रश्न उत्तर | Kabir Dohe |

कबीर साहेब के दोहे | गुरु शिष्य प्रश्न उत्तर |

अनहद बाजा बाजिया ज्योति भया प्रकाश | साहेब कबीर अंदर खड़े स्वामी सन्मुख दास ||

बाजा बाजे रहित का पड़ा नगर में शोर | सतगुरु ख़सम कबीर है मोहि नजरी ना आवे और ||

गुरु शिष्य प्रश्न उत्तर

उ. सुरत चेतन है और मन जड़ |

उ. मन का जड़पना तभी मिटेगा जब किसी पुरे गुरु या सन्त का शरण लेकर उनके आदेश का पालन करेगा
यानि उनके बताये हुए युक्ति के साथ अन्तर्मुख साधन में लगेगा तब मन चैतन्य हो जायेगा और उसका जड़पना मिट जायेगा।

कबीर साहेब के दोहे | गुरु शिष्य प्रश्न उत्तर | अनमोल ज्ञान

Kabir ke Dohe

कबीर साहेब गुरु शिष्य प्रश्न उत्तर

उ . तन या शरीर में इन्द्रियों का चालक मन हैं।

उ. मन को शक्ति सुरत से मिलती हैं।

उ. मन शब्द ब्रह्म का अंश है तथा सुरत सत्यपुरुष का अंश हैं।

उ. मन का आहार इन्द्रियों का बिषय भोग है। तथा सुरत का आहार शब्द धुन से मिलता है।

उ. सुरत का असल मुकाम सत्यलोक है और मन का असल मुकाम त्रिकुटी में है।

उ. मन का बैठक दोनों आँखों के पीछे है और वाह्म इन्द्रियों से संसार का काम करता हैं।

उ. मन जब तक विषय भोग या धन – परिवार के मोह में फंसा रहेगा तब तक अंदर में शब्द धुन सुनाई नहीं देगा।

उ. मन जब तक पुरे गुरु या साधु एवम उनके सत संगियों से गहरा प्रेम से सेवा सत्संग नहीं करेगा तब तक संसार से उपराम नहीं होगा।

उ. अपने आप को समर्पण उनके चरणों में कर देना है और मालिक को मांगना है।

उ. मालिक जीव पर तब राजी होते है, जब जीव अपने – आपको सतगुरु के हवाले कर देता है।
जब गुरु राजी हो जाये तो मालिक राजी हो जाते है।
कहा गया है ,


।। साखी ।।

गुरु राजी तो कर्ता राजी, काल कर्म के चले न बाज़ी।।

उ. गुरु का हुक्म मानना, आज्ञाकारी होना, उनके रज्जा में राजी रहना, चाह रहित सेवा करना , साहेब कबीर क्या कहते है।

फल कारन सेवा करे , गुरु से चाहे मान।
कहै कबीर सेवक नहीं , चहे चौगुना दाम।।

गुरु सेवा का फल मुक्ति है , अब सेवक गुरु से अपना मान मर्यादा भी चाहता है। भला बताईये जो शिष्य गुरु का एक पैसे का काम करें और चार पैसा मजदूरी चाहता है , तो वह सेवक नहीं मजुरा है।

।। साखी ।।

सेवक सेवा में रहें , आठ पहर दिन रात।
कहँ कबीर कुसेवका , लख चौरासी जात।।

भाव – बाहर गुरु का आज्ञाकारी हो यह कि , गुरु कब और क्या कहेंगे उसको करने के लिए तैयार रहें , आठ पहर यानि चार पहर दिन और चार पहर रात , यह आठ पहर है बाहर में गुरु वाक्य यानि देही सेवा करना और अंदर में शब्द स्वरुप यानि शब्द धुन में मन सुरत से अंदर की सेवा करना।

जो सेवक ये अंदर और बाहर दोनों सेवा ईमानदारी से करता है उस सेवक को सतगुरु अपने धाम सत्यलोक ले जाते है, और जो सेवक कहे का कटपीस करता है वह सेवक नहीं है। उसको काल अपने जाल में फंसाये रखता है , और सच्चे सतगुरु की सेवा में गुमराह करा देता है।

उ. आप खुद देख कर नहीं समझ पाते हैं कि जब भी कोई जीव भरी गलती करता है , तो पुलिस पकड़ती है और बेरहमी से मारती है क्यूंकि तुम गलती मत करो इस तरह हम गलती की सजाय पाते हैं हरजाना भी भरते है फिर भी हम दुनिया क जीव गलती करते हैं।

तब पकड़ कर जेल जाते है मार खाते है यहाँ की यही दशा हैं।
हमारी और तीन लोक का मालिक हमको कफ ,खासी , दम्मा , कैंसर , या , टी बी , इत्यादि असाध्य रोगी बनाकर संसार में भेज देते हैं। दुःख सहते है अब डॉक्टर , बैध अनगिनत रुपया लेते है। चिर फाड़ करते हैं दवा इलाज़ करते हैं , फिर भी कितने रोगी मर जाते है , ये सब दुःख सुख कर्म के फल हैं।

उ. सुरत चेतन स्वरुप है और यह ऐसा लतीफ है यानि सूक्ष्म है कि वह स्थूल दृष्टि से दिखाई नहीं देगी, जब संत सतगुरु के द्वारा साधन की युक्ति प्राप्त कर अंतर अभ्यास किया जाता है, और ऊपरी मंडल में चढ़ाई होता है तब रहस्य मालूम होगा या दिखाई देता है। विशेष समझने योग्य बात यह है कि यह जड़ शरीर चलता है, बोलता है, खाता पीता है, लेकिन यह चेतन, शरीर से जब निकल जाता है तो इसे कोई नहीं देखता।

उ. मन भी जाग्रत स्वरुप लतीफ़ है और यह शब्द ब्रह्म का अंश है , इसे कर्ता काल निरंजन ने पैदा किया है और शरीर या संसार के घाट – घाट पर चौकीदार बनाया है ताकि कोई जीव काल के हद से बाहर न जाय।

उ. कर्ता की कुदरती कारोबार को आसानी से हमलोग समझ नहीं पाएंगे। जब तक हमलोग आंतरिक सूक्ष्म मंडल में प्रवेश नहीं करेंगे , जब आप सुरत शब्द योग का साधन करके जायेंगे , और अंदर की आँखें खुलेगी , तब समझ में आएगा कि यह कैसा लीला कर्त्ता मालिक ने बनाया है। आप देखे और विचार करे एक वट बृक्ष का बीज कितना बारीक़ है और उसमे कैसा विशाल बृक्ष छिपा हुआ है। वह आसानी से देखा या समझा नहीं जायेगा। जब वह बीज धरती में पड़ेगा तब जमेगा और पलाइस पाकर धीरे – धीरे बड़ा होगा।

तब पता लगेगा कि किस तरह बीज में बृक्ष छिपा हुआ था। इसी तरह जब हमलोग गुरु मार्ग पर चल कर अन्दर प्रवेश करेंगे। तब आत्म स्वरुप तथा परमात्म स्वरुप का पहिचान होगा। इसका मतलब यह की ग्रन्थ – पोथियों में पढ़कर भी हमलोग मालिक या परमात्मा के विषय में कुछ समझ या जान सकते है।

लेकिन बिना देखे विश्वास उतना पक्का नहीं होगा। जैसे हम जानते है की मीठा – मीठ है फिर भी बिना खाये मुँह मीठ नहीं होगा। इसी तरह बिना सतगुरु के अन्दर जाने का मार्ग भेद जानकारी नहीं होगा , और जानकारी के बिना साधन नहीं होगा और साधन के बिना अन्दर नहीं जा पाएंगे। वहाँ पहुंचे बिना ये सब चीज देख नहीं पाएंगे।

उ. इस संसार में कर्म और विचार बड़ा है। मनुष्य कर्म से बड़ा या छोटा कहलाता है। कर्म से देवता है , कर्म से दानाव है , कर्म से साधु है , कर्म से चोर , कर्म से पंडित , और कर्म से ही मुर्ख कहलाता है। कर्म स्वर्ग और नर्क में ले जाता है।

उ. चौरासी लाख योनि है , जिसमे सबसे बड़ा मनुष्य है। लेकिन यह है कि मनुष्य अपने कर्म पर विचार करे , और विचार के साथ कर्म करें , क्यों कि कर्म से ही मानव होता है। एक ही माता के गर्भ से मानव – दानव तथा देव की उत्पति होती है।

राक्षस – दानव माँस खाता है , मदिरा पिता है वह निर्दयी होता है , जीव हिंसा करता है , और दानव या राक्षस के अन्दर में भय या दर बना रहता है।

देव – साधु या संत देव कहलाते है। इनके अन्दर ईश्वरी शक्ति होती है तथा यों कहो की ये लोग अपने मालिक में समाये रहते है , और ऐसे देव या साधु संत से संपर्क या उनसे प्रेम करैत है तो ऐसे महापुरुषों की संगती से बहुत से जीवों को सदगति प्राप्त हो जाती है , यानि उनके आदेशानुसार साधन भजन करके निजधाम , यानि सत्यलोक चले जाते है।

उ. कर्म का जाल तीन लोक के मालिक कर्ता काल निरंजन ने बनाया , और इसी को संत सतगुरु कर्म का जाल या काल का जाल कहा है , इसे पाप – पुण्य शुभ – अशुभ कहाँ गया है। जिसके चलते स्वर्ग-नर्क या दुःख -सुख हम सभी जीव भोगते है। पुण्य कर्म करके स्वर्ग बैकुंठ जाते है या संसार में सुख – संपन्न राजा – महाराजा सेठ साहूकार बन के आ जाते है।

हमारे हाथ में हुकूमत का बागडोर मिल जाता है , हजारो – लाखो के ऊपर हुकुम चलाते है , तथा नीच या पाप करम करके यमपुरी में जाते है , यमदुतो के हाथ से मार खाते है , नरक में जाते है , फिर चौरासी में जाते है , तब हमारी क्या दसा होती है ,सूअर का तन मिलता है , विष्टा खाते है , कुत्ता सियार होते है , हड्डी चाटते है मांस खाते है , यानि जिस योनि में जाते है वैसा आहार व्यावहार मिलता है ,इस प्रकार कर्म का सिलसिला अनादिकाल से हमारे साथ लगा है। जब तक पुरे संत सद्गुरु की शरण में न जाए तब-तक जन्म-मरण के चक्कर से छुटकारा नहीं पा सकते है।

प्रश्न . स्त्री और पुरुष का भेद कहाँ तक रहता है ?

उ . पुरुष और स्त्री का भेद दसवेदवार तक रहता है , इसके आगे कोई भेद नहीं है। मानसरोवर में स्नान कर लेने के बाद दोनों का रूप एक हो जाता है।

प्रश्न . तन में इन्द्रियों का चालक कौन हैं?

उ . तन या शरीर में इन्द्रियों का चालक मन हैं।

प्रश्न . मन को शक्ति कहाँ से मिलती हैं?

उ. मन को शक्ति सुरत से मिलती हैं।

प्रश्न . मन किसका अंश है और सुरत किसका अंश हैं?

उ. मन शब्द ब्रह्म का अंश है तथा सुरत सत्यपुरुष का अंश हैं।

प्रश्न . मन का आहार क्या है और सुरत का आहार क्या हैं?

उ. मन का आहार इन्द्रियों का बिषय भोग है। तथा सुरत का आहार शब्द धुन से मिलता है।

प्रश्न . स्त्री और पुरुष का भेद कहाँ तक रहता है ?

उ . पुरुष और स्त्री का भेद दसवेदवार तक रहता है , इसके आगे कोई भेद नहीं है। मानसरोवर में स्नान कर लेने के बाद दोनों का रूप एक हो जाता है।

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