श्रीलक्ष्मी-चरित्र
श्री लक्ष्मी पूजन का महत्व, एक बार देवताओं ने अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मन्थन करने का विचार किया। समुद्र मन्थन के लिए देवगण अकेले तो सक्षम नही थे, अतः उन्होंने दैत्यों को भी इस कार्य को करने के लिए आमन्त्रित कर अपने साथ ले लिया। फलतः देवता और दैत्य दोनों ने मिलकर समुद्र का मंथन किया। समुद्र को मंथन करने के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी तथा वासुकि नाग को रस्सी बनाया गया।
सर्प के फण की ओर दैत्य रहे और पूंछ वाले भाग की ओर देवता। जब मंदराचल पर्वत समुद्र में नीचे की ओर धंसने लगा, उस समय भगवान विष्णु ने कच्छप अवतार लेकर उस पर्वत को अपनी पीठ पर रख लिया। फलस्वरूप अपने स्थान पर वह स्थिर रहा, उसका नीचे की ओर धंसना रुक गया।
दीर्घकाल तक समुद्र मंथन करते रहने के बाद उसमें से सर्वप्रथम हलाहल नामक विष प्रकट हुआ। उस विष की तीव्र ज्वाला से जब तीनों लोक हाहाकार करने लगे, उस समय शिवजी ने उस तीव्र को अपने कंठ में धारण कर लिया, इसके फलस्वरूप उनका कंठ नीला पड़ गया और वे नीलकंठ कहलाये।
हलाहल विष के बाद समुद्र में से अनेक प्रकार के और भी रत्न प्रकट हुए। अमृत का प्राकट्य सबसे अन्त में हुआ। विष से आरम्भ करके अमृत पर्यन्त कुल 14 रत्न समुद्र में से निकाले थे श्री, रम्भा, विष, पारुणि, अमृत, शंख, गजराज, धेनु, धनु, धनवन्तरि, कल्पद्रुम, शशि, मणि, बाज। उनमें एक रत्न के रुप में माँ श्रीलक्ष्मी भी प्रकट हुई।
विभिन्न रत्नों के देवता तथा दैत्यों ने परस्पर बांट लिया था। लक्ष्मी जी को श्रीविष्णु ने अपनी अद्धर्द्धांगिनी के रूप में स्वीकार किया। तभी से लक्ष्मी विष्णुप्रिया, विष्णुपत्नी या विष्णु वल्लभा कही जाती है। समुद्र से उत्पन्न होने के कारण लक्ष्मी जी का नाम सिन्धुकन्या या सागरसुता भी है।
श्रीलक्ष्मीजी का शरीर गौर वर्ण है। इनकी चार भुजाएं हैं। ये किरीट मुकुट तथा दिव्य वस्त्रालंकारों को धारण करती है। इन्हें धन-धान्य-ऐश्वर्य एवं समृद्धि की अधिष्ठात्री देवी माना जाता है। लक्ष्मी जी का वाहन ‘उलूक’ पक्षी है। ये स्वभाव से परम चंचल हैं-
“कमला थीर न रहीम काही, यही जानत सबकोय।”
पुरुष पुरातन की वधू, क्यों न चंचला होय।।”
यह कभी भी एक स्थान पर स्थिर होकर नहीं रहती। परन्तु विष्णु पत्नी होने के कारण जहाँ भगवान श्री विष्णु की आराधना के साथ ही श्री लक्ष्मी जी की भी नियमित आराधना होती है, वहाँ ये स्थिर रूप से निवास करती हैं।
मुझे एक किस्सा याद आ रहा है। एक धनी-मनी सम्मानित नगर सेठ के यहाँ पीढ़ियों से लक्ष्मी का वास था। एक समय लक्ष्मी वहाँ लम्बे समय तक रहने के कारण उकता गई। बस फिर क्या था? स्वप्न में लक्ष्मी ने सेठ से कहा – “सेठ ! मैं यहाँ उकता गई हूँ। मैं अब जाना चाहती हूँ। पर लम्बे समय तक तुमने मेरी सेवा की है, अतः कोई वरदान मांगो।”
सेठ चतुर था, उसने कहा “मां मुझे एक दिन की मोहलत दो। अपने परिवार से पूछकर वरदान मागूंगा।” लक्ष्मी ने कहा- “तथास्तु।”
सेठ ने दूसरे दिन अपने समस्त कुटुम्ब को एकत्र किया और लक्ष्मीजी का वचन सुना दिया। सभी किंकर्त्तव्यविमूढ़ ! खैर !
सेठ के बड़े पुत्र ने कहा ‘मेरे लिए एक मिल और माँग लेना।’
पुत्रवधू ने एक नया बंगला चाहा, दूसरे पुत्र ने एक विदेशी कार की माँग की तो किसी ने कुछ सभी ने अपनी अपनी इच्छित वस्तु की माँग की। अन्त में मात्र सबसे छोटे पुत्र की बहू से पूछना रह गया। सेठ ने सोचा यह अभी बच्ची है। महीने भर पूर्व ही तो इस घर में आयी है। इससे क्या पूछें? सब कुछ तो माँग चुके हैं।
फिर सोचा, इसे भी क्यों नाराज करें? अन्ततः पूछ बैठे। बहू बोली “पिताजी मैं क्या माँगू? आप पिता-माता तीर्थरूप हैं। पति परमेश्वर रूप हैं
घर में सब कुछ है। हाँ, एक बात अवश्य माँ लक्ष्मी से माँगना कि जो सुख-शान्ति इस घर में है, वही सदैव बनी रहे।”
सेठ मुँह बिचकाकर रह गया। दूसरे दिन सेठ ने लक्ष्मी से सबकी इच्छा प्रकट कर दी और लक्ष्मी जी ऐसा ही होगा कहती रहीं। अन्त में जब छोटी बहू की बात कही तो लक्ष्मी सिर पकड़कर वहीं बैठ गई।
‘सेठ, मैं इस बहू द्वारा छली गई।’ कारण कि जहाँ सुख-शान्ति हो वहां से लक्ष्मी जा नहीं सकती, जहां कलह है, वहां लक्ष्मी रह नहीं सकती। बस, लक्ष्मी सेठ की होकर रह गई।
गोस्वामी जी ने इसी प्रसंग में रामायण में लिखा है –
जहाँ सुमति तहँ संपति नाना।
जहाँ कुमति तहँ बिपति निदाना ।।
श्री महालक्ष्मी जी का आसन कमल है, इसलिए उन्हें कमला या कमलासना भी कहा जाता है। यथार्थ में तो ये परब्रह्म प्रभु की आधी शक्ति हैं। उस आधी शक्ति ने ही समुद्र के गर्भ से लक्ष्मी रूप में अवतारित होकर श्री विष्णु को वामांग में स्थान दिया है। ये अपने पति भगवान विष्णु की निरन्तर सेवा करती रहती हैं। यही कारण है कि जो लोग विष्णु के भक्त हैं, उन्हें अनायास ही भगवती लक्ष्मी की कृपा भी प्राप्त होती है।
गुरु शिष्य प्रशन्न उत्तर ये भी पढ़े
श्री लक्ष्मी पूजन
कार्तिक कृष्णा अमावस्या को दीपावली की रात्रि में भगवती महालक्ष्मी का पूजन विशेष रूप से किया जाता है। कहा जाता है कि इस तिथि को भगवती लक्ष्मी विशेष रूप से विश्व भ्रमण को निकलती हैं तथा जिस स्थान पर अपनी उपासना-आराधना होते हुए देखती हैं, वहीं अपनी निवास बना लेती है।
इसलिए दीपावली की निशा में प्रत्येक वैष्णव को कम से कम एक बार लक्ष्मीसहस्त्रनाम पाठ अवश्य करना चाहिए। भगवती महालक्ष्मी की सहस्त्रनाम उपासना-आराधना द्वारा दुःख दारिद्र्य से मुक्ति पाकर मनचाहा ऐश्वर्य प्राप्त किया जा सकता है।
श्री लक्ष्मी पूजन विधान
-: दोहा :-
गुरु गणपति शारद सुमरि, विष्णुः शीश निवाय।
लक्ष्मी पूजा लिखत हूँ, मोदी सरस बनाय।।
*श्री लक्ष्मी पूजन सामग्री
शुद्ध जल के लिए तांबे के कलश, जौ, मोली (लच्छा), रोली (कुंकुम), अक्षत (चावल), अगरबत्ती, दीपक, नैवेद्य (गुड़), श्रीफल (नारियल), बतासे, प्रसाद, ऋतुफल, दूध, दही, घी, शहद, शक्कर, कपूर, पान के पत्ते 10, सुपारियां, थाल, कटोरियाँ, पाटे, मेहंदी, काजल, चूड़ियां, विशेष रेशमी वस्त्र, इत्र, गहने, कमलपुष्प या गुलाब पुष्प, लौंग, इलायची, मेवा, अंगोछा, लक्ष्मी व गणेश जी की मूर्तियां, घर में रखे चांदी के सिक्के, बन्दनवार के लिए गन्ने (सांठे), फूलमाला, तीर्थजल, घर में बनायी गयी अथवा बाजार से लायी गयी मिठाइयां।
नोट – उपरोक्त सामग्री सम्पन्न घराने के लिए लिखी गई है। मध्यम तथा साधारण स्थिति वाले यथाशक्ति जितनी भी सामग्री जुटा सकें, उससे ही सहर्ष पूजा करें।
माँ लक्ष्मीजी के बहुत स्वरूप हैं। और माँ लक्ष्मीजी को श्रीयंत्र एवं महालक्ष्मी यंत्र अतिप्रिय हैं। अतः पूजन प्रारम्भ करने से पूर्व सपरिवार श्रीयंत्र, महालक्ष्मी यंत्र, लक्ष्मी के विविध स्वरूपों एवं माँ लक्ष्मी श्रीगणेश एवं सरस्वती के साथ विराजमान की छवि का सच्चे दिल से ध्यान करो।
* दीपावली पूजन विधान * श्री लक्ष्मी पूजन
शुद्ध जल से स्नान करके तथा शुद्ध वस्त्र पहनकर सकुटुम्ब श्री महालक्ष्मीजी का पूजन करें। एक पाटा बिछाकर उस पर श्रीगणेशजी तथा महालक्ष्मीजी की मूर्तियां पधरावें। सामने जौ के आंखे रखकर कलश स्थापन करें, कलश के ऊपर श्रीफल रखें, कुंकुम से साठिया (स्वस्तिक) बना दें और वस्त्र के रूप में लच्छा बांध दे।
एक थाल में पूजन की सारी सामग्री रखलें और दूसरे थाल में रोली, मोली, अक्षत, पानी से भरा कलश व कुछ चांदी के सिक्के आदि रख लेवें।
पाटे के दोनों और दो गन्ने (सांठे) जिससे शक्कर बनती है बन्दनवार बनाने हेतु रखें। यह इसका प्रतीक है कि माँ लक्ष्मी गन्ने का समान प्रीति बढ़ाये।
किसी भी पूजन में पहले वरुण पूजन, फिर गणपति पूजन, फिर शोडषमातृका पूजन और नवग्रहों का पूजन हो करके बाद में मुख्य देवी- देवता का पूजन होता है, अतः मैं भी यहाँ उसी क्रम से पूजा विधान लिख रहा हूँ। शोडषमातृका व नवग्रहों की पूजा के लिए ब्राह्मण लोग अलग- अलग दो पाटों पर गेहूँ के दानों से लाल वस्त्र पर मातृका मण्डल तथा दूसरे पाटे पर चावलों से नवग्रह मंडल बनाते है और वही उनकी पूजा होती है।
परन्तु इनके अभाव में रोली, मोली वाले थाल में ही रोली (कुंकुम) से एक साठिया (स्वास्तिक) बनावें, इसी साठिये पर गणेश का पूजन करें। साठिये के पास ही कुंकुम से एक त्रिशुल बनावें जिस पर शोडषमातृका पूजन करे और इसके नीचे कुंकुम से नौ टीकियां लगा दें उन्हीं टीकियों पर नवग्रह पूजन करें। उपरोक्त सारी तैयारी करके घृत (घी) का दीपक एवं अगरबत्ती जलावें तथा पूजन प्रारम्भ करें।
नोट – पूजन हिन्दी दोहों में दिया है परिवार का मुखिया किताब लेकर एक बार दोहे बोले फिर परिवार के सभी सदस्य उसका अनुसरण करें।
श्री लक्ष्मी पूजन प्रारम्भ
श्री लक्ष्मी जी की तस्वीर के सामने सपरिवार आसन बिछाकर बैठें और पूजन की थाली में जो जल का कलश (लोटा) रखा है। उसमें से परिवार के सभी सदस्य थोड़ा सा जल बांये हाथ में लेकर दाहिने हाथ से अपने शरीर पर छींटे देते हुए यह दोहा बोले-
वरुण विष्णु सबसे बड़े देवन में सिरताज।
बाहर भीतर देह मम शुद्ध करो महाराज ।।
अब परिवार के सभी सदस्य हाथ में दुबारा जल लेवें और उसमें थोड़े से चावल के दाने डालकर संकल्प बोलकर धरती माता पर छोड़ देवें।
संकल्प यह है
मैं जाति गोत्र वाला आज मिति कार्तिक कृष्णा श्री महालक्ष्मी पूजन कर रहा/रही हूँ। जम्बूद्वीप के भारत-खण्ड का रहने वार ……. संवत …… को सकुटुम्ब
नोट – खाली जगहों में अपना नाम, जाति, गोत्र, तिथि तथा वार लगा लेवें।
अब परिवार की रक्षा के लिए सभी सदस्य चावल के दाने हाथ में लेकर दशों दिशाओं में थोड़े-थोड़े फेंकते हुए ये दोहे बोलें
पूरब में घनश्याम जी दक्षिण में वाराह।
पश्चिम केशव दुःख हरे, उत्तर श्रीधरशाह।।
ऊपर गिरधर कृष्ण जी, शेषनागपाताल।
दशो दिशा रक्षा करें, मेरी नित गोपाल ।।
श्री वरुण (जल कलश ) पूजनम
अब पूजा के थाल में रखे जल के कलशे पर परिवार के सभी सदस्य अक्षत छोडकर वरुण देवता का आह्वान निम्न दोहों को बोलकर करें –
जल जीवन है जगत का, वरुण देव का वास।
सकल देव निश दिन करे, कलशे मांहि निवास।।
गंगादिक नदियां बसें, सागर सप्त निवास ।
पूजा हेतु पधारिये, पाप शाप हो नाश ।।
अब थाल में जल के कलशे पर ,स्नान समर्पयामी, कहकन स्नान करावें (स्नान तांबुल अर्थात नागरबेल के पान के पत्तों से करावें।)
‘वस्त्र समर्पयामि‘ कहकर मोलि अर्थात लच्छा चडावें।
‘गंधकम् समर्पयामि‘ कहकर रोली अर्थात् कुंकुम के छिंटे देवें।
‘अक्षतान् समर्पयामि’ कहकर चावल चढ़ावें (जल के कलश में चावल डाल दें।)
‘पुष्प समर्पयामि’ कहकर पुष्प- चढ़ाएँ।
‘धूपमाधार्पयामि‘ कहकर अगरबत्ती दिखावें।
‘दीपम दर्शनयामि’ कहकर दीपक दिखावे ।
‘नैवेद्यम् समर्पयामि‘ कहकर प्रसाद या गुड़ चढ़ावें ।
‘आचमनीया समर्पयामि‘ कहते हुए तीन बार जल के छीटें देकर आचमन करावें।
‘ताम्बुलं समर्पयामि’ कहते हुए पान चढ़ावे।
‘दक्षिणां समर्पयाषि‘ कहते हुए सुपारी चढ़ावे यहाँ पर पैसे नहीं चढ़ावें सुपारी ही चढ़ावें क्योंकि आप स्वयं पूजन कर रहे हैं।
अब भगवान वरुण देवता को हाथ जोड़कर कहें,
क्या दे सकता / सदाती दक्षिणा, आती मुझको लाज।
नमस्कार की भेंट लो, जोडूं मैं दोनों हाथ ।।
श्री गणपति पूजनम्। श्री लक्ष्मी पूजन
अब पूजा के थाल में साठिये पर अक्षत डालकर निम्न दोहे बोलते हुए श्रीगणेशजी का आह्वान कर नमस्कार करें।
रिम-झिम करता आवजो, गवरी पुत्र गणेश।
सबसे पहले मनावस्यु, काटो सकल क्लेश ।।
सिद्धि सदन गजवदन वर, प्रथम पूज्य गणराज।
प्रथम वन्दना आपको, आय सुधारो काज ।।
अब गणेशजी की मूर्ति या थाल में साठिये पर श्रीगणेशजी महाराज का पूजन इस प्रकार करें –
‘स्नानं समर्पयामि’ कहकर स्नान करावेन्।
‘वस्त्र समर्पयामि’ कहकर मोलि अर्थात् लच्छा चडावें।
‘गंधकम् समर्पयामि’ कहकर रोली अर्थात कुंकुम के छीन्ते देवें।
‘अक्षातां समर्पयामि’ कहकर चावल चढ़ावे।
‘पुष्प समर्पयामि’ कहकर पुष्प चढ़ावें।
‘धूपमाधारपयामि’ कहकर धूप देवें।
‘दीपम् दर्शनयामि‘ कहकर दीपक दिखावें।
‘नैवेद्यम् समर्पयामि’ कहकर प्रसाद या गुड़ चडेवें।
‘आचमनीया समर्पयामि’ कहते हुए गणेश जी महाराज पर तीन बार जल के छीटें देवें।
‘ताम्बुलं समर्पयामि’ कहते हुए पान चढ़ावें।
‘दक्षिणायं समर्पयामि’ कहते हुए सुपारि चढ़ावें।
अब गणेश जी महाराज को हाथ जोड़कर निम्न दोहा बोलकर नमस्कार करे।
जय गणपति गिरिजा सुवन, रिद्धि-सिद्धि दातार।
कष्ट हरो मंगल करो, नमस्कार शत बार।।
शोडष मातृका पूजनम्। श्री लक्ष्मी पूजन
अब पूजा के थाल में त्रिशूल पर अक्षत डालकर यह दोहा बोलते हुए शोड़ष मातृकाओं का आह्वान व नमस्कार करें।
बेग पधारो गेह मम, सोलह माता आप।
वंश बढ़े पीड़ा कटे, मिटे शोक सन्ताप ।।
अब थाल में जहाँ त्रिशूल मांडी है उस पर ‘स्नानं समर्पयामि’ कहकर स्नान करावें।
‘वस्त्रं समर्पयामि‘ कहकर मोली (लच्छा) चढ़वें।
‘गंधकम् समर्पयामि’ कहकर रोली (कुंकुम) के छींटे देवे।
‘अक्षातां समर्पयामि’ कहकर चावल चढ़ावेन्।
‘पुष्पं समर्पयामि’ कहकर पुष्प – चढ़ाएँ।
‘धूपमाधारपयामि’ कहकर धूप देवें।
‘दीपम् दर्शनयामि’ कहकर दीपक दिखावें।
‘नैवेद्यम् समर्पयामि’ कहकर प्रसाद या गुड़ चढ़ावें ।
‘आचमनीया समर्पयामि’ कहते हुए तीन बार जल के छीटें देकर आचमन करावें।
‘ताम्बुलं समर्पयामि’ कहते हुए पान चढ़ावें।
‘दक्षिणायं समर्पयामि’ कहते हुए सुपारि चढ़ावें।
इसके बाद हाथ जोड़कर तथा यह दोहा बोलकर नमस्कार करें –
सोलह माता आपको, नमस्कार शतबार।
पुष्टि तुष्टि मंगल करो, भरो अखण्ड भण्डार।।
नवग्रह पूजनम्। श्री लक्ष्मी पूजन
अब पूजा के थाल में कुंकुम की नौ बिन्दियों पर अक्षत डालकर यह दोहा बोलते हुए नवग्रहों का आह्वान करें
रवि सोम मंगल बुद्ध गुरु, शुक्र शनि महाराज।
राहु केतु नवग्रह नमो, सकल संवारी काज।।
अब पूजा के थाल में नौ बिन्दियों पर
‘स्नानम् समर्पयामि’ कहकर स्नान करावें।
‘वस्त्रम् समर्पयामि’ कहकर मोलि (लच्छ) चढ़वें।
‘गंधकम् समर्पयामि’ कहकर रोली (कुंकुम) के छीटे देवें।
‘अक्षातां समर्पयामि’ कहकर चावल चढ़ावेन्।
‘पुष्पम् समर्पयामि’ कहकर पुष्प चढ़ावें।
‘धूपमाधारपयामि’ कहकर धूप देवें।
‘दीपम् दर्शनयामि’ कहकर दीपक दिखावें।
‘नैवेद्यम् समर्पयामि’ कहकर प्रसाद या गुड़ चढ़ावें।
‘आचमनीया समर्पयामि’ कहते हुए तीन बार जल के छीटें देकर आचमन करावें।
‘ताम्बुलं समर्पयामि‘ कहकर पान चढ़ावें।
‘दक्षिणां समर्पयामि’ कहते हुए सुपारि चढ़ावें।
इसके बाद हाथ जोड़कर तथा दोहा बोलकर नमस्कार करें –
हे नवग्रह आपसे करूं, विनती बारम्बार।
मैं सेवक आपका, रखो कृपा अपार ।।
श्री महालक्ष्मी पूजनम्। श्री लक्ष्मी पूजन
नोट – जल कलश पूजन, श्रीगणेश पूजन, षोडश मातृका पूजन हो जाने के बाद ही श्रीमहालक्ष्मी पूजन करें।
अब नीचे लिखे दोहों को पढ़कर श्रीमहालक्ष्मीजी की तस्वीर की ओर अक्षत डालते हुए श्रीमहालक्ष्मीजी का आह्वान व नमस्कार करें तथा नमस्कार करते हुए निम्न दोहे बोलें –
जय जग जननी जय रमा, विष्णुप्रिया जगदम्ब।
बेग पधारो गेह मम, करो न मातु विलम्ब ।।
पाट बिराजो मुदित पन, थरो अखण्ड भण्डार।
भक्ति पूजन सहित करं, करो मातु स्वीकार।।
विष्णु प्रिया सागर सुता, जन जीवन आधार।
गेह वास मेरे करो, नमस्कार शत बार।।
अब महालक्ष्मी जी को –
स्नानम् स्वाथगामी’ कहते हुए स्नान करावें।
”दुग्ध स्नानम् समर्पयाभि’‘ कहते हुए दूध के छींटे दें।
‘शर्करा स्नानं समर्पयागी‘ कहते हुए सक्कर से स्नान करावें।
‘पंचामृत स्नानं सगर्पयामि’ कहते हुए पंचामृत (कच्चा दूध, दही,
शक्कर, शहद, घी से बने मिश्रण) के छीटे देवें।
‘पुनः जल स्नानं समर्पयामि’ पुनः जल से स्नान करावें।
‘वस्त्रं समर्पयामि’ कहते हुए मोली (लच्छा) चढ़ावे तथा घर के मुख्य
की पत्नी माँ लक्ष्मी को साड़ी के रूप में वस्त्र एवं चूड़ियाँ, मेंहदी तथा काजल निम्न दोहे बोलते हुए अर्पण करे –
वस्त्र – साड़ी-चोली रूप में, वस्त्र द्वय ये अंब ।
भेंट करूं सो लीजिए, मुझको तब अवलंब ।।
अंजन-चूड़ी-मेंहदी –
नयन सुभग कज्जल सुभग लो नेत्रों में डार।
करो चूड़ियों से जननी हाथों का श्रृङ्गार ।।
‘गंधकम् समर्पयामि’ कहते हुए कुंकुम के छीटे देवें।
‘अक्षातां समर्पयामि’ कहकर चावल चढ़ावेन्।
‘पुष्पम् समर्पयामि’ कहकर पुष्प चढ़ावें।
‘फूलमाला समर्पयामि’ कहकर फूलमाला चढ़ावें।
‘गन्धम् समर्पयामि’ कहकर इत्र लगावें।
‘धूपमाधार्पयामि’ कहकर अगरबत्ती की झनकार लगावें अथवा धूप देवें।
‘दीपम् दर्शनयामि’ कहकर दीपक दिखावें।
‘नैवेद्यम् समर्पयामि’ कहकर प्रसाद या गुड़ चडेवें।
‘ऋतुफल समर्पयामि’ कहते हुए ऋतुफल चढ़ावे।
‘मिष्ठानम् समर्पयामि’ कहते हुए घर में बनायी तथा बाजार से लायी सभी मिठाइयाँ चढ़ावे।
‘आचमनीया समर्पयामि’ कहते हुए तीन बार जल से आचमन करावें।
‘ताम्बुलं समर्पयामि’ कहते हुए लौंग व् इलाइची से युक्त पान चढ़ावें।
‘दक्षिणां समर्पयामि’ कहते हुए सुपारि चढ़ावें।
अब हाथ जोड़कर यह दोहा बोलते हुए मन में ऐसी कल्पना करें कि आप महालक्ष्मीजी को एक हजार बार प्रणाम कर हरे हैं।
जयति जयति मातेश्वरी, सहस्त्र वन्दना तोय।
सुख सम्पत्ति वरदान दो, दास जानकर मोय ।।
दवात कलम बही पूजनं
अब नीचे लिखे मंत्र को पढ़ते हुए सरस्वती देवी का ध्यान कर श्री सरस्वती का आह्वान व नमस्कार करें-
ॐ सरस्वती वाग्वादिनी काश्मीर वासिनी हंस वाहिनी बहु बुद्धिदायिनी मम जिह्वा गृहे स्थिर भव सर्वजन वशीकरण स्वाहा।।
अब थाली में जो रुपये रखे हों उन्हें भी स्नान करावें तथा रोली-मोली आदि चढ़ाकर उपरोक्त विधि से पूजा कर लेवें। अब यदि घर में पूजा की ही तो एक डायरी में तथा दुकान पर पूजा की हो तो बही में कुंकुम से साठिया (स्वास्तिक) मांडे तथा शुभ-लाभ एवं रिद्धि-सिद्धि लिखें और साठिये का पूजन उपरोक्त विधि से कर डायरी एवं बही में रिकार्ड के लिए निम्न लिखें –
श्री श्री 1008 श्री महालक्ष्मी जी का भंडार सदा भरपूर रहसी। आज मिती कार्तिक सुदि को सायंकाल सम्वत् दिनांक बजे शुभ मुहूत में सपरिवार पूजा कीनी। श्री महालक्ष्मी जी महाराज का भंडार रिद्धि-सिद्धि सदा भरपूर रहसी। वार
(1) ……………………………………………………
(2) …………………………………………………….
(3) ……………………………………………………..
(4) ………………………………………………………
उपरोक्त क्रमांक में परिवार के सदस्य जो पूजा में बैठे हों वह अपने हस्ताक्षर कर दें।
अब सभी पूजन करने वालों के कुंकुम से तिलक करें, अक्षत बढ़ावें और लच्छा बांधे फिर थाली में एक पान के पत्ते पर कपूर रखकर जलावें और प्रेम पूर्वक आरती करें।
लक्ष्मी सूक्तम्
पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायतंक्षी। विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकोले त्वत्पादपद्यं मयि सन्निधत्स्व ।।1।।
पण्डदमन्ने पद्मसूरु पद्माक्षी पद्मसम्भवे। तन्मे भजसि पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम् ।।2।।
अश्वदायै गोदायै धनदायै महाधने। धनं मे जुष्टां देवि सर्वकामांश्च देहि मे।। 3 ..
पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वस्तरि रथम्। प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे।।4।।
धनग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः। धनमिन्द्रा बृहस्पतिवरुणो धनमश्चिना।।5।।
वन्तेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा। सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः।।6।।
न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभ मति। भवन्ति कृतपुण्यानां भक्त्या श्रीसूक्तजापिनम्।।7।।
सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगंध-माल्यशोभे। भगवती हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ।।8।।
विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवी माधवप्रियाम्। लक्ष्मी प्रियसखिं भूमि नमाम्यच्युतवल्लभम् ।।
महालक्ष्मये च विद्महे विष्णुपत्न्यै च धीमहि। तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात्।।10।।
आनंदः कर्दमः श्रीदश्चिक्लित इति विश्रुताः। ऋषयः श्रियः पुत्राश्च मयि श्रीर्देवीदेवता माताः।।
ऋण रोगादि दारिद्र्य पाप क्षुदम्प सत्यवः। भयशोकमनस्तपा नश्यन्तु मम सर्वदा।।12।।
श्रीवर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छुभमानं महीयते। धनं धान्यं पशु बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घकालिकमायुः ।।1 3।।
अथ श्रीलक्ष्मी स्तोत्रम्
प्रारभ्यते
जय पद्मपालाक्षी जय त्वं श्रीपतिप्रिये। जय मातरमहालक्ष्मी संसाराण्वतारिणि।।
महालक्ष्मी नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं सुरेश्वरि। हरिप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे।।2।।
पद्मालये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं च सर्वदे।। सर्वभूतहितार्थाय वसुवृष्टि सदा कुरु ।।3।।
जगन्मातर्नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं दयानिधे। दयावति नमस्तुभ्यं विश्वेश्वरि नमोऽस्तु ते।।4।।
नमः क्षीरार्णवसुते नमस्त्रैलोक्यधारिणी। वसुवृष्टे नमस्तुभ्यं रक्ष मां शरणगतम्।। 5..
रक्ष त्वं देवदेवेषि देवदेवस्य वल्लभे। दारिद्रयत्राहि माँ लक्ष्मी कृपा कुरु ममोपरि।।6।।
नमस्त्रैलोक्यजननि नमस्त्रैलोक्यपावनि। ब्रह्मादयो नमस्ते त्वां जगदानन्ददायिनी।।
विष्णुप्रिये नमस्तुभ्यं नमस्तुभ्यं जगद्धिते। आरतीहंत्रि नमस्तुभ्यं समृद्धि कुरु मे सदा।।8।।
अब्ज्वासे नमस्तुभ्यं चपलयै नमो नमः। चञ्चलायै नमस्तुभ्यं ललितायै नमो नमः।।
नमः प्रद्युम्नजननि मतिस्तुभ्यं नमो नमः। परिपाल्य भो मातर्मां देवी शरणागतम् ।।10।।
शरण्ये त्वां प्रापन्नोऽस्मि कमले कमलालये।
त्राहि त्राहि महालक्ष्मी परित्राणपरायणे।।11।।
पाण्डित्यं शोभते नैव न शोभन्ति गुणा नरे।
शीलत्वं नैव शोभेत् महालक्ष्मी त्वया विना।।12।।
तवद्विराजते रूपं तवच्छिलं विराजते।
तावद्गुणा नारायणं च यावल्लक्षि प्रसीदति।।13।।
लक्ष्मी त्वयालंकृतमानवा ये पापर्विमुक्ता नृपलोकमान्यः।
गुणैर्सिकाना गुणिनो भवन्ति दुःशीलिनः शीलवतां वृद्धाः।।14।।
लक्ष्मी भूषयते रूपं लक्ष्मीर्भूषयते कुलम्।
लक्ष्मीर्भूषयते विद्यां सर्वाल्क्स्मीर्विश्यते ।।15 ।।
लक्ष्मी त्वदगुणकीर्तनेन कमला भूर्यात्यलं जिह्यतां।
रुद्राद्या रविचन्द्र देवपतयो वक्तुं च नैव क्षमाः।
अस्माभिस्तव रुलक्षणगुणान्वक्तुं कथं शक्यते।
मातर्मा परिपाहि विश्वजननि कृत्वा मामेष्टं ध्रुवम्।। 16।।
दीनार्तिभीतं भवतापपीदितं धनैर्यसनं तव पार्श्वमागतम्।
कृपानिधित्वानम लक्ष्मी सत्वरं धनप्ताकाधन्ननायक कुरु ।।17।।
मां विलोक्य जननि हरिप्रिये निर्धनं तव आंतमगतम्।
देहि मे जस्थिति लक्ष्मी कराग्रं वस्त्रकाञ्चनवरन्नमद्भूतम् ।।18।।
त्वमेव जननी लक्ष्मी पिता लक्ष्मी त्वमेव च।
भ्राता त्व च सखा लक्ष्मी विद्धा लक्ष्मी त्वमेव च।।19।।
त्राहि त्राहि महालक्ष्मी त्राहि त्राहि सुरेश्वरि।
त्राहि त्राहि जगन्मातरद्रिद्रत्राहि वेगतः।।20।।
नमस्तुभ्यं जगद्धात्रि नमस्तुभ्यं नमो नमः।
धर्माधारे नमस्तुभ्यं नमः असतदायिनी ।।21।।
दरिद्रयार्णवमग्नोऽहं निमग्नोऽहं रसातले।
मज्जन्तं मां करे धृत्वा सुधारं त्वं रमे द्रुतम्।। 22।।
किं लक्ष्मी बहुनोक्तेन जल्पितेन पुनः पुनः
अन्यान्मे शरणं नास्ति सत्यं सत्यं हरिप्रिये ।।2 3।।
एतच्छु त्वाऽगस्ति वाक्यं हृष्यमाना हरिप्रिया।
उवाच मधुरं वाणीं तुष्टाहं तव सर्वदा।। 24।।
लक्ष्मीरुवाच
यत्वयोक्तमिदं स्तोत्रं यः पुष्यति मानवः।
श्रृणोति च महाभागस्तस्याहं वश्वर्तिनी।। 25.
नित्यं पथति यो भक्त्या त्वल्क्ष्मस्तस्य नश्यति।
रंच नश्यते तिब्र वियोगं नैव पश्यति।। 26 ..
यः पठेत्प्रातरुत्थाय श्रद्धा-भक्तिसमन्वितः।
गृहे तस्य सदा स्थास्ये नित्यं श्रीपतिना सह।। 27.
सुखसौभाग्यसम्पन्नो मनस्वी बुद्धि भवेत्।
पुत्रवान् गुणवान् श्रेष्ठो भोगोक्त च मानवः।।28।।
इदं स्तोत्रं महापुण्यं लक्ष्म्यगस्तिप्रकीर्तितम्।
विष्णुप्रसादजननं चतुर्वर्गफल प्रदम् ।।29।।
राजद्वारे जयश्चैव शत्रुश्चैव पराजयः।
भूतप्रेतपिशाचानां व्याघ्राणां न भत्रं तथा ।।30।।
न शस्त्रानल तोयौघद्भयं तस्य प्रजायते।
दुर्वृत्तानां च पापानां बहुहानिकरं परम्।। 31..
मन्दुराकरिजलासु गवां गोष्ठे समाविष्टः।
पत्थेत्तद्दोषशांत्यर्थं महापातकनाशं ।।32।।
सर्वसौख्यकारं नृणामायुरारोग्यदं तथा।
अग्तिमुन्निना प्रोक्तं प्रजानां हितकाम्यया ।।33।।