सद्गुरु कबीर साहेब संक्षिप्त जीवन-दर्शन सद्गुरु कबीर साहेब संक्षिप्त जीवन-दर्शनपरम यशस्विनी एवं गौरवशालिनी यह भारतभूमि सदा से ऋषि-मुनियों, देवी-देवताओं एवं पीर पैगम्बरों की जन्मदायिनी रही है। मान्य धर्मग्रंथों में यह प्रसिद्ध है कि समय-समय पर इस पुण्य भूमि पर मानवता और धर्म के उत्थान एवं विकास के लिए विशेष विभूति सम्पन्न संत-महापुरुषों का अवतरण हुआ है। उनमें सद्गुरु कबीर साहेब अन्यतम हैं।
सद्गुरु कबीर साहेब संक्षिप्त जीवन-दर्शन
सद्गुरु कबीर साहेब ने परम संतरूप में प्रकट होकर अपनी सहज-सरल एवं गहन-गम्भीर वाणियों के द्वारा जो सदाचार, सत्यज्ञान तथा मोक्ष का सदुपदेश किया, उससे निस्संदेह मानवता को असीम सुख एवं अपार बल मिला और सत्यधर्म की जाग्रति तथा वृद्धि हुई। व्यवहार और परमार्थ के सब रहस्य एवं अंगों से पूर्ण उनकी उत्कृष्ट सदाबहार शब्द-साखियां लोकप्रसिद्ध हैं। उनके शब्द-शब्द में अत्यंत गूढ़ भाव एवं गम्भीर ज्ञान सन्निहित है। उनसे उनकी सहजता, सरलता तथा यथार्थता का स्पष्ट बोध होता है। अपने सहज स्वाभाविक सद्गुणों, निष्पक्ष ज्ञान- विचारों एवं सर्वकल्याणकारी शब्द- उपदेशों से वे जन-जन के प्रिय तथा परम वन्दनीय हैं।
जैसे आकाश में असंख्य टिमटिमाते तारों के बीच में एक चन्द्रमा चमकता हुआ शोभित होता है और उसकी श्वेत चांदनी से रात्रि भी शोभा पाती है, वैसे अनेक संत-महापुरुषों के नामों में एक नाम ‘कबीर’ अद्वितीय ढंग से चमकता- शोभता है और उसकी दिव्य चमक से समूचे संत-क्षेत्र की महिमा बढ़ती है। वस्तुतः ‘कबीर’ नाम है-उस सत्यता, पवित्रता एवं निष्कामता का जिसकी संगति में आने वाला हर कोई जिज्ञासु ‘साधु’ हो जाता है।
सद्गुरु कबीर साहेब का उपदेशित ज्ञान ऐसा चमत्कारी है कि जो उसे ठीक से ग्रहण करता है, वह उसके घट के पट खोलकर उसे नया मुक्त एवं श्रेष्ठ जीवन प्रदान करता है। प्रायः देखा जाता है कि जीवन-सुधार या कल्याण के लिए ज्ञान- सदाचार की बात हो या आत्मा-परमात्मा की चर्चा, भजन-कीर्तन हो या सत्संग-
प्रवचन, वहां पर कबीर साहेब के नाम के साथ उनके अनमोल वाणी-वचनों का उदाहरण आ ही जाता है। कई बार बड़े जन-समूह एवं धर्म-सम्प्रदायों में मन की शंकाओं का समाधान तथा सत्य का प्रतिपादन करने के लिए भी उनकी सारगर्भित वाणी का आधार लिया जाता है। सचमुच, बात चाहे व्यवहार की हो या परमार्थ की, सर्वथा सत्य पर आधारित कबीर साहेब की बात अकाट्य एवं निराली है, जो सभी के विश्वास को पुष्ट करती है और उसे मानने को बाध्य भी।
सद्गुरु कबीर साहेब के असंख्य साखी शब्दों में समाया हुआ उनका सत्यज्ञानोपदेश अटके-भटके सांसारिक जनों को धर्म एवं कर्तव्य का सही मार्ग दर्शाता है। वह उन्हें निम्न पशुता से उठाकर समुन्नत श्रेष्ठ मानव-जीवन जीने की कला सिखाता है। सम्पूर्ण मानवता को उन्होंने अपने शब्दों में समेटा है। सर्व समानता एवं सर्वहित के सच्चे मानव-धर्म को उन्होंने सविस्तार अपने सरल शब्दों में वर्णित किया है। सही अर्थों में सद्गुरु कबीर साहेब मानवता के परम आदर्श और उनकी समस्त शब्द-वाणियां मानव-कल्याण के दिव्य सूत्र हैं। स्वयं सदा सत्य में प्रतिष्ठित और निर्भय सत्य का उद्घोषक, ऐसा उन जैसी निष्काम-निर्मल छवि वाला पूर्ण संत-सद्गुरु अन्य कोई होगा, कहना कठिन है।
ऐसे अप्रतिम प्रतिभावान, अनंत महिमावान सद्गुरु कबीर साहेब के जीवन-चरित्र के बारे में जानने की प्रबल उत्कंठा संत भक्तों एवं जन-साधारण के अन्तर्मन में जाग्रत होना स्वाभाविक है। इस जानने में बड़ी कठिनाई यह है कि उनके बारे में बहुत लोगों ने विभिन्न प्रकार से कहा है और स्वयं उन्होंने अपने शरीर-सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से कुछ नहीं कहा। प्रायः संत-महापुरुषों ने अपने सांसारिक जीवन-परिचय के बारे में कुछ कहने-लिखने की आवश्यकता नहीं समझी।
उन्होंने तो केवल निस्वार्थ रूप से सर्वजन हित के शुभ कार्य किए और सर्व-कल्याण की ही बातों को कहा-लिखा। हां, यह बात अलग है कि उनके बारे में उन्हीं के समय के लोगों ने जैसा देखा-सुना या समझा, वैसा कहा-लिखा हो। सद्गुरु कबीर साहेब के बारे में अधिकतर पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके संत भक्तों का कहा-लिखा हुआ और साहित्यकारों का अपने ढंग का समझा-लिखा मिलता है। स्वयं सद्गुरु कबीर की मूल वाणी में यदि उनके परिचय जैसा कुछ मिलता भी है तो उसका भी गहन आध्यात्मिक अर्थ ही अधिक सिद्ध होता है।
यथा-
हिन्दू कहूं तो मैं नहीं, मुसलमान भी नाहिं ।
पांच तत्व का पूतला, गैबी खेलै माहिं ॥
हिन्दू तुरुक के बीच में, मेरा नाम कबीर ।
जिव मुक्तावन कारनै, अविगति धरा शरीर ॥
हम वासी वा देश के, जाति वर्ण कुल नाहिं ।
शब्द मिलावा है रहा, देह मिलावा नाहिं ॥
कबीर का घर शिखर पर, जहां सिलहली गैल ।
पांव न टिकै पपील का, तहां खलकन लादै बैल॥
उपर्युक्त साखियों के भावार्थ से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि सद्गुरु कबीर साहेब शरीर एवं शरीर के सम्बन्धों से ऊपर उठे हुए आत्मस्वरूपस्थ थे।
इस संसार को वे अपना देश नहीं मानते थे, अतः इससे उनका कोई लगाव नहीं था। वे अपने-आपको न हिन्दू कहते थे और न मुसलमानादि। पांच तत्व के पुतले शरीर में जो गुप्त आत्मस्वरूप खेलता है, उसी की ओर वे अपने होने का संकेत करते । उस समय के दो बड़े वर्ग हिन्दू और मुसलमान थे, इसलिए उन्हीं को देखते हुए उन्होंने कहा कि हिन्दू-मुस्लिम के बीच में मेरे प्रकट स्वरूप का नाम ‘कबीर’ है।
जीवों को मुक्ताने के लिए ही अविगत पुरुष ने यह शरीर धारण किया है। आगे उन्होंने बताया है कि हम तो उस अलौकिक देश के निवासी हैं, जहां जाति, वर्ण, कुल नहीं होते और जिसका मिलाप शरीर से नहीं, वरन् सार शब्द से होता है। माया-मोह एवं विषय-वासनाओं के धरातल पर वे नहीं थे।
उनका निज घर (निवास-स्थिति) परमात्मस्वरूप-शिखर पर था, जिसके रपटीले मार्ग में चींटी के भी पांव नहीं टिकते। परन्तु वहां संसार के लोग बैल लादकर ले जाना चाहते हैं। कुल मिलाकर सद्गुरु कबीर साहेब अध्यात्म के चरमोत्कर्ष पर थे, जहां
सामान्य दृष्टि से उन्हें नहीं देखा जा सकता। उनका यथार्थ परिचय तो उनकी शब्द- वाणियों में आपूरित उनका सत्यज्ञान ही है। उसके आधार पर उनके देदीप्यमान परम संत जीवन को, उनकी महानता एवं विशिष्टता को किसी हद तक समझा जा सकता है।
परन्तु लोग उनकी शब्द-वाणियों का भी अपने-अपने अनुसार अर्थ लगाते हैं और कुछ दूसरों का अयुक्त-असंगत कहा हुआ बिना विचारे मान लेते हैं। ऐसे ही कुछ कारणों से उनके जीवन चरित्र के बारे में संत-विद्वानों के विभिन्न मत हैं।
किसी ने उनको प्रकृति के अविच्छिन्न एवं अटल नियमों के अन्तर्गत शरीर से सामान्य तो किसी ने सर्व बंधनों से मुक्त असामान्य दिव्य स्वरूप में माना है।
परन्तु प्रायः सभी ने उनके ठोस आध्यात्मिक ज्ञान-विचार एवं सत्य सिद्धान्त के आगे शीश झुकाते हुए उन्हें युग का महान सत्पुरुष तथा सत्यज्ञान प्रदाता परम संत- सद्गुरु स्वीकार किया है।
वह युग घोर विषमताओं, संकीर्णताओं एवं कुनीतियों के अंधकार से युक्त था, जिसमें सद्गुरु कबीर साहेब महान प्रकाशस्वरूप होकर चमके। सम्भवतः उस युगांधकार को चीरने और आगे तक के जन-समाज को जगाने के लिए ही उनका प्राकट्य हुआ था।
समझना चाहिए कि सद्गुरु कबीर साहेब जैसे समुज्ज्वल परमात्म-स्थिति के संत-महापुरुष सामान्य जीवों की भांति सांसारिक भोगों को भोगने के लिए जन्म नहीं लेते। निश्चित ही विधि-विधान से उनके जन्म अथवा
प्राकट्य का कोई विशेष प्रयोजन होता है। मुख्यतः वे लोकोपकार, परहित एवं परमार्थ के लिए ही प्रकट होते हैं। सुप्रसिद्ध संत-महात्माओं एवं असंख्य भक्तों की मान्यता है और प्रसिद्ध कबीरपंथी ग्रंथों में यह वर्णित है कि सद्गुरु कबीर साहेब का प्राकट्य सत्यज्ञान द्वारा जीवों को चेताने, उनका उद्धार करने और इस लोक में सत्य धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए हुआ।
सद्गुरु कबीर साहेब का प्राकट्य भारतीय इतिहास के मध्य युग में हुआ। उस समय भारत में मुसलमानों का राज्य था। उनके इस्लाम का ही सर्वाधिक बोलबाला था। कट्टरपंथी मुसलमान अपने मजहब को फैलाने तथा उसे मनवाने के लिए अन्य मतावलम्बियों पर मनमाना अत्याचार करते थे।
अन्याय-पाप का खुला विस्तार हो रहा था। असत्य का चलन- प्रदर्शन था और सत्य जैसे कहीं लुप्त हो गया था। सब ओर धर्म एवं सम्प्रदाय की विद्वेषाग्नि भड़क रही थी। धर्म के नाम पर लड़ाई-झगड़े होते रहते थे और उनका बड़ा रूप होने पर मानव का रक्त बहाया जाता था।
परस्पर वैमनस्य बढ़ रहा था तथा जनमानस में अशांति छाई थी। प्रपंच- पाखण्ड एवं आडम्बर जोरों पर थे। धर्म के ठेकेदार पंडित-मौलवी जनसाधारण को बहकाते हुए अपनी स्वार्थपूर्ति में लगे हुए थे। अंधविश्वासों एवं रूड़ कुरीतियों की जड़ता-दासता से जन-जन दिशाहीन हो चला था।
छूत-अछूत एवं ऊंच-नीच के भेद-भावों से मानव-समाज छिन्न-भिन्न हो रहा था। रात-दिन दुर्बल दीन-होन जनों का शोषण होने से उनका जीना कठिन हो रहा था। परन्तु इस सबके विरुद्ध कोई समर्थ व्यक्ति स्पष्ट कहने वाला न था। मानवता त्रस्त एवं पीड़ित थी।
ऐसी विषमतापूर्ण, विकराल दुख-स्थिति में भक्त सज्जनों, दीन जनता तथा इस धरती की समग्र मानवता का निज रक्षा के लिए अपने इष्ट (त्राता) को पुकारना, प्रार्थना करना स्वाभाविक था। उस कठिन काल में समाज एवं धर्म की दुर्दशा देखकर तथा मानवता की पीड़ा समझकर मानो सबके स्वामी सत्पुरुष- परमात्मा पिघल गए।
उन्होंने उन सबकी पुकार प्रार्थना सुन ली। जिसके परिणामस्वरूप उस क्रूर काल को प्रताड़ने, असत्य को रौंदने एवं सत्य को सामने लाने वाले ज्ञान मोक्ष प्रदाता सद्गुरु-सत्यपुरुष (कबीर) के प्राकट्य का यह शुभावसर आया, जिसकी बहुत पहले से प्रतीक्षा की जा रही थी। कहा गया है-
सतगुरु कबीर प्रकट हुए
चौदह सौ पचपन साल गए, चन्द्रवार इक ठाठ ठये ।
ज्येष्ठ सुदी बरसावत को, पूरणमासी प्रगट भये ॥
सद्गुरु के प्राकट्य के बारे में जो कबीरपंथ के विद्वत संत-महंतों ने खोज- शोध कर लिखा या कहा है, श्री गरीबदास जी आदि सुप्रसिद्ध संतों ने जो अपने शब्दों में गाया है और बहुसंख्यक भक्तों की जो मान्यता है तथा कबीर मन्सूर आदि ग्रंथों में स्पष्ट वर्णित है, वह इस प्रकार है-
विक्रमी संवत् चौदह सौ पचपन, ज्येष्ठ मास पूर्णिमा, दिन सोमवार को आकाश-मंडल से सत्यपुरुष का दिव्य तेज काशी (उ. प्र.) के लहरतारा तालाब में उतरा। उस समय अंधेरा छाया हुआ था और मन्द वृष्टि हो रही थी। उस तेज से वह तालाब ज्योतिर्मय होकर जगमगाने लगा तथा सब दिशाएं जगमगाहट से पूर्ण हो गईं।
इस अद्भुत दृश्य को वहां पर बैठे श्री अष्टानन्द स्वामी ने देखा। तत्पश्चात उन्होंने उसका समस्त विवरण स्वामी रामानन्द जी को जाकर सुनाया। उधर फिर वह दिव्य तेज मनुष्य के शिशु-रूप में परिवर्तित हो गया और जल के ऊपर खिले कमल-पुष्प पर हाथ-पांव फेंकते हुए किलकारी मारने लगा। यह प्रत्यक्ष बाल- रूप कबीर था। उनके दिव्य प्राकट्य से सम्बद्ध ये पंक्तियां प्रसिद्ध हैं-
गगन मंडल से उतरे, सद्गुरु सत्य कबीर ।
जलज माहिं पोढ़न कियो, दोउ दीन के पीर ॥
इसे सुयोग ही समझिए कि उसी समय एक काशी का निवासी नीरू जुलाहा अपनी पत्नी नीमा का गौना कराकर उक्त लहरतारा तालाब के समीप के ही रास्ते से जा रहा था। उसकी पत्नी नीमा को बड़ी प्यास लगी थी, इसलिए वह उस तालाब पर जल पीने गई। जल पीने के बाद उसने वहां इधर-उधर दृष्टि डाली तो खिले हुए कमल पुष्प पर एक अति सुन्दर तेजस्वी शिशु को किलकारी मारते देखा। वह उसके पास चली गई तो हृदय में अत्यंत स्नेह उमड़ पड़ा।
तभी उसने उस शिशु को उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। फिर वह उस शिशु को लिए हुए अपने पति नीरू के पास आई और उसे वह प्यारा शिशु दिखाया। उस शिशु के सम्बन्ध में नीरू के पूछने पर उसने उस शिशु के लहरतारा तालाब के कमल पुष्प पर देखे -पाये जाने की अनूठी बात बता दी।
इसके साथ ही नीमा ने अपने दृढ़ निश्चय से कहा कि अब हम इस बालक को अपने पास ही रखेंगे। नीरू के बहुत मना करने तथा समझाने पर भी नीमा ने उस शिशु को अपने से अलग नहीं किया। अन्ततः वे पूरी तरह सोच-विचारकर उसे अपने घर ले आए और खुशी-खुशी उसको पालने-पोसने लगे। उन्होंने जब उस बालक का नामकरण मौलवी एवं पंडित के द्वारा कराया तो उसका नाम ‘कबीर’ रखा गया। वही बालक ‘कबीर’ आगे चलकर जगत में परम संत-सद्गुरु के रूप में प्रसिद्ध हुआ।
दम्पत्ति नीरू-नीमा जुलाहे के यहां बालक कबीर समय के साथ-साथ पलते-बढ़ते गए। उनका तेजोमय स्वरूप बड़ा सुन्दर एवं आकर्षक था। नीरू- नीमा और उनके आस-पास के सब लोगों को रोज-रोज उनकी आश्चर्यपूर्ण बाललीला देखने को मिलती थी। स्वाभाविक रूप से ही बालक कबीर अद्भुत साहसी, तीव्र मेधावी और असाधारण गुणों से भरपूर थे। प्रसिद्ध संत श्री गरीबदास जी अपनी वाणी में कहते हैं कि काशी में कबीर जब पांच वर्ष के हुए, तब वे अद्भुत कला, ज्ञान-ध्यान एवं दिव्य सद्गुणों से सम्पन्न थे। यथा-
पांच बरस के जब भये, काशी मांझ कबीर।
गरीबदास अजब कला, ज्ञान ध्यान गुण सीर ॥
इतनी अल्प आयु में बालक रूप कबीर साहेब का इतना महान प्रतिभाशाली होना सबको आश्चर्य में डालता था। उनकी सीधी-सरल सत्य एवं ज्ञान की बातों को सुनकर बड़े-बड़े पंडित-मौलवी ढीले तथा कमजोर पड़ जाते थे। उन्हें उनकी बातों का उत्तर न सूझ पड़ता था। ऐसे ही बहुत लोग उनके ज्ञान-विचारों का लोहा मानते थे। अपनी विशिष्टता से कबीर लोगों के हृदयों में उतरते गए।
संसार में आए सभी लोगों को गुरु की आवश्यकता है, क्योंकि बिना गुरु से ज्ञान पाए सांसारिक माया-मोह, विषय-वासनाओं एवं राग-द्वेषादि से छूटना तथा कल्याण-मोक्ष का पाना सम्भव नहीं है। परन्तु कबीर साहेब सामान्य संसारी लोगों की भांति किसी आसक्ति या बंधन में नहीं पड़े थे।
वे तो स्वतः ही संसार से विरक्त, सत्यज्ञान सम्पन्न एवं सदा जाग्रत मुक्त स्वरूप थे, अतः उन्हें ज्ञान एवं मुक्ति पाने के लिए किसी गुरु की आवश्यकता न थी। फिर भी उन्होंने गुरु-पद का गौरव बढ़ाने और लोक-मर्यादा को निभाने के लिए उस समय के सुप्रसिद्ध विद्वान वैष्णव स्वामी श्री रामानन्द जी को गुरु किया।
यद्यपि स्वामी रामानन्द जी स्वेच्छा से कबीर साहब को अपना शिष्य नहीं बनाना चाहते थे, तथापि कबीर साहेब ने अपने एक अद्भुत प्रकार से स्वयं को सामने लाकर स्वामी रामानन्द के मुख से निकले ‘रामनाम’ को जानकर उन्हें अपना गुरु मान लिया।
रामानंद स्वामी को इस प्रकार गुरु कीऐ
स्वामी रामानन्द जी को गुरु-रूप में स्वीकारने पर भी कबीर साहेब उनकी मत मान्यताओं से अलग रहे। कबीर साहेब के अविनाशी राम तथा उनकी निष्काम सहज भक्ति-साधना स्वामी रामानन्द जी के दाशरथि राम, मूर्तिपूजा एवं विभिन्न कर्मकांडों से भिन्न थी। फिर भी कबीर साहेब विनम्र भाव से स्वामी रामानन्द जी को गुरु-रूप में बराबर सम्मान देते थे। समय-समय पर उन्होंने अपनी गम्भीर ज्ञानवार्त्ता और सत्य गुरु-भक्ति का परिचय देकर स्वामी रामानन्द जी को संतुष्ट एवं प्रसन्न किया।
इतने पर भी सद्गुरु कबीर साहेब और स्वामी रामानन्द जी के ज्ञान-सिद्धान्त का अन्तर देखते हुए उनका गुरु-शिष्य मर्यादा में होना कठिन जान पड़ता है। कहीं पर तो कबीर साहेब ही अपनी सारगर्भित निर्णय बात को स्वामी रामानन्द को उपदेशात्मक रूप से कहते हैं और उनके न मानने पर जोर से उलाहना देकर उन्हें समझाते हुए लगते हैं।
रामानन्द रामरस माते। कहहिं कबीर हम कहि कहि थाके ॥
अर्थात् “स्वामी रामानन्द कल्पित राम एवं दाशरथि राम के भाव-रस में मोहे
रहे, मैं उन्हें कह-कहकर थक गया। परन्तु वे हृदय में रमे अविनाशी आत्माराम को नहीं देखते-समझते हैं।” ऐसी स्थिति में यह कैसे माना जाए कि कबीर साहेब
के गुरु रामानन्द थे ? बस यही कहा जा सकता है कि उन्होंने लोक-मर्यादा के लिए ही स्वामी रामानन्द को गुरु किया होगा।
समय के साथ-साथ चलते-बढ़ते हुए सद्गुरु कबीर साहेब अपने निर्मल, समुज्ज्वल ज्ञान-विचारों से सूर्य सदृश्य उजागर हुए। उनके समुन्नत उत्कृष्ट जीवन में धर्म-कर्म सम्बन्धी ऐसी कई अनूठी घटनाएं घटीं जिनसे सब ओर उनका बहुत नाम हुआ और उन्हें यश मिला। घर-संसार से उनका कोई लगाव न था।
न उन्हें किसी से कुछ लेना-देना था। वे अपने-आप में पूर्ण निश्चिंत फक्कड़ मस्त स्वभाव के थे। परहित एवं परमार्थ के पथ पर चलना ही उन्हें अच्छा लगता था। वे अपने-आप के राम में मग्न रहते और लोगों को सत्य-तथ्य से अवगत कराते थे। उन्हें उनकी भूल एवं उनके मोह-अज्ञान को बता-समझाकर उनसे छुड़ाते थे।
वे सदा सत्य में प्रतिष्ठित एक सजग प्रहरी थे, अतएव सार्वभौम सत्य की उद्घोषणा करते हुए सबको जगाते चेताते थे। सबको समान रूप से सुख-शांति मिले, सब सदाचार-सत्यज्ञान के पथ पर चलें और इस संसार सागर से उद्धार पायें, यही उनके जीवन का विशेष प्रयोजन था ।
जैसे-जैसे समय बीतता गया, वैसे-वैसे सद्गुरु कबीर साहेब अपनी परम ज्ञानस्वरूप स्थिति में अधिकाधिक प्रतिभासित होते गए और सारे जन-समाज में छाते गए। विशेषतः संत भक्तों के बीच में वे सर्वाधिक सम्मानित प्रशंसित हुए। दिन-दिन उनके तेजोमय स्वरूप एवं सार ज्ञान की प्रसिद्धि सब ओर होने से बहुत लोग दूर-दूर से उनका ज्ञान-सत्संग सुनने तथा अपनी भ्रम-शंकाओं को मिटाने के लिए उनके पास आने लगे।
स्वयं सद्गुरु कबीर साहेब भी दया-भाव से लोगों की भलाई करने, उन्हें बुराइयों के संकट से उबारने और अपने सत्यज्ञान का प्रचार- प्रसार करने के लिए गांव-नगर दूर-दूर घूमने निकलते थे। वे देश-विदेश में गए, जैसा कि उन्होंने बीजक में अपने शब्दों में कहा है-‘देश विदेश हाँ फिरा, गांव- गांव की खोरि।’
उनके घूमने ओर लोगों से मिलने से सम्बद्ध उनकी बहुत-सी कथाएं पढ़ने-सुनने को मिलती हैं। उस समय देश में सबसे बड़े दो ही जाति- सम्प्रदाय- हिन्दू एवं मुसलमान थे, अतएव कबीर साहेब ने उनके नाम अपने शब्दों में लिए हैं। उन दोनों वर्गों के बहुत से हिन्दू-मुसलमान उनके अनुयायी एवं शिष्य हो गए और उनके दर्शाये ज्ञान-पथ पर चल पड़े। इसीलिए वे हिन्दुओं के गुरु और मुसलमानों के पीर कहलाए।
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सद्गुरु कबीर साहेब जहां भी रहे या गए वहां उन्होंने मानव समाज को समुन्नत एवं सुविकसित होने का सदुपदेश किया। वे मानवता का शोषण एवं धर्म का पतन कैसे देख सकते थे ? उन्होंने सबको ऊंचा उठाने, अच्छा खुशहाल बनाने का भरपूर प्रयास किया। उन्होंने अपनी टकसार शब्द-वाणियों में सब भ्रष्टाचार,
व्यर्थ अपवादों एवं परम्परागत तुच्छ मान्यताओं को नकारकर सर्वथा शुद्ध ज्ञान- विचार तथा सदाचार पर आधारित सर्वहित के सच्चे ‘मानव धर्म’ को वर्णित किया है। सम्पूर्ण मानव-जाति की भलाई के लिए उन्होंने सब मानवों की एकता, • समानता और उनके परस्पर सद्भाव एवं सद्व्यवहार पर जोर दिया।
उन्होंने ऊंच- नीच तथा छूत-अछूत के भेदभाव को अनुचित एवं बड़ा दोष बताते हुए समझाया है कि प्रत्येक मानव समादरणीय है और उसे समान रूप से सुख पाने एवं अपना कल्याण करने का अधिकार है। बीजक के एक शब्द में वे कहते हैं-
एकै त्वचा हाड़ मल मूत्रा, एक रुधिर एक गूदा ।
एक बुन्द से सृष्टि रची है, को ब्राह्मण को शूद्रा ॥
रजोगुण ब्रह्मा तमोगुण शंकर, सतोगुणी हरि होई ।
कहहिं कबीर राम रमि रहिये, हिन्दू तुरुक न कोई ॥
“सभी मानव एक जैसे चाम, हाड़, मल-मूत्र, रक्त तथा मांस का शरीर धारण किए हैं। एक ही प्रकार के रज-वीर्य से सृष्टि रची है, फिर कौन ब्राह्मण और कौन शूद्र है। रज-तम-सत् ये तीनों गुण ब्रह्मा, शंकर तथा विष्णु रूप हैं। यहां न कोई हिन्दू है और न मुसलमान, सब समान सजाति हैं।
अपने भीतर के आत्माराम में रमे रहो, वही सुखदायी है।” उनके कथन का गहन आशय यह रहा है कि कोई भी मनुष्य वर्ण-जाति, घर-परिवार एवं धन-बलादि से बड़ा नहीं हो जाता, प्रत्युत सत्याचरण एवं उच्च ज्ञान-विचार से बड़ा तथा श्रेष्ठ होता है। बिना ज्ञान-विचार के केवल खाने-भोगने वाला मनुष्य पशु के समान है।
सद्गुरु कबीर साहेब का उपदेशित ज्ञान निष्पक्ष, निर्मल एवं निभ्रत है। उन्होंने अपनी शब्द-वाणियों में अपना समूचा सत्यज्ञानोपदेश मानव को सामने रखकर किया। उनकी समस्त शब्द-वाणियां मानवमात्र के कल्याण के लिए हैं, जिनमें उन्होंने मानव को मानव-जीवन की महत्ता एवं उसके कल्याण का उपाय बताया है।
उन्होंने समझाया है कि यह मनुष्य जन्म दुर्लभ है, पुनः नहीं मिलता। जैसे पका हुआ फल गिर पड़ता है तो पुनः डाल पर नहीं लगता। अतः इस मनुष्य- जीवन को पाकर यदि अबकी बार चूक गए, अर्थात् उत्तम रहनी गहनी एवं ज्ञान- साधना से अपना कल्याण नहीं कर पाए तो जन्म-मरण के चक्र में दुखों की मार सहनी पड़ेगी। यथा- पड़कर अनंत
मानुष जन्म दुर्लभ है, बहुरि न दूजी बार। पक्का फल जो गिर पड़ा, बहुरि न लागै डार ॥ मानुष जन्म नर पायके, चूके अबकी घात । जाय परे भवचक्र में, सहे घनेरी लात ॥ इस संसार सृष्टि में चौरासी लाख जीव-योनियां बताई गई हैं। उनमें सबसे