SADGURU KABIR SAHEB DOHE: सद्गुरु कबीर साहेब के दोहे गलत धारणाओ को अलग करके वास्तविकता को दर्शाते है। दुर्लभ मनुष्य-जन्म को सार्थक करने के लिए सभी मानव कपटी काल-प्रपंच , कल्पित जड़, देवी – देवों, मिथ्या मान्यताओं एवं माया – मोह से सर्वथा परे हो।
सर्व मान्य है कि सद्गुरु कबीर साहेब ने वर्ण -जाती, धर्म एवं संप्रदाय आदि की संकीर्णताओ से ऊपर उठकर मानव – कल्याण का सदुपदेश किया है। सर्वहित एवं सुख शांति के लिए उन्होंने जनमानस में जो अनुराग जगाने का प्रयास किये है।

गुरु कबीर की राह निराली , विश्व शांति की मूल मिली।
हिन्दू मुस्लिम ईश्वर – अल्लाह , भेदभव की गांठ खुली।।
जाती – पाती अरु छुआछूत का , भूत हमेशा भरमाया।
गाँधी का सिद्धांत अनोखा , गुरु कबीर से है आया।।
सत्य अहिंसा विश्व धर्म है , महामंत्र को गाया था।
एक पिता के पुत्र सभी हो , जन – जन को समझाया था।।
SADGURU KABIR SAHEB DOHE; सद्गुरु कबीर साहेब के दोहे।
जब लग ध्यान विदेह न आवे। तब लग जिव भटका खावे।।
ध्यान विदेह औ नाम विदेहा। दोउ लखि पावे मिटे संदेहा।।
सद्गुरु कबीर साहेब ध्यान – साधना के बारे में समझाते हुए कहते है कि जब तक देह से परे विदेह का ध्यान करना नहीं आता या ध्यान होने में नहीं आता , तब तक जीव
संत कबीर: एक परिचय
सद्गुरु कबीर साहेब जी 15वीं शताब्दी में वाराणसी के लहरतारा तलाब में कमल के पुष्प पर प्रगट हुए थे। उन्हें निरु और नीमा अपने घर ले गए वे लोग जात के जुलाहे थे। एक जुलाहे के घर पले-बढ़े सद्गुरु कबीर साहेब ने कभी औपचारिक शिक्षा नहीं पाई, लेकिन उनके दोहे मानवता के लिए “ज्ञान का महाकाव्य” बन गए। उनकी रचनाएँ निर्गुण भक्ति धारा की बुनियाद हैं, जो ईश्वर को रीति-रिवाजों से परे मानती हैं।
सद्गुरु कबीर के दोहे: क्यों हैं अनूठे?
सद्गुरु कबीर साहेब के दोहे सीधे दिल पर चोट करते हैं। वे न तो संस्कृत के जटिल श्लोक हैं, न ही फारसी के काव्यबंध। उनकी भाषा “सधुक्कड़ी” है, जो आम जनता की बोली में सत्य को उकेरती है। इन दोहों की खासियत यह है कि ये व्यक्ति को बिना लाग-लपेट के उसकी कमजोरियों और समाज की विसंगतियों से रूबरू कराते हैं।
1. “ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।”
सार: शब्दों की ताकत को समझें। मीठी वाणी न केवल दूसरों को सुकून देती है, बल्कि स्वयं के मन को भी शांत करती है। आज के विषैले माहौल में यह दोहा संवाद की संस्कृति को बचाने का संदेश देता है।
2. “पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात। देखत ही छुप जाएगा, ज्यों तारा परभात।”
सार: मनुष्य का अस्तित्व पानी के बुलबुले की तरह क्षणभंगुर है। यह दोहा हमें अहंकार छोड़कर विनम्रता से जीने की सीख देता है।
3. “माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर। कर का मनका डारि के, मन का मनका फेर।”
सार: माला घुमाने से नहीं, मन के विचारों को बदलने से आध्यात्मिक प्रगति होती है। यह आडंबरों पर करारा प्रहार है।
4. “कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर। न काहू से दोस्ती, न काहू से बैर।”
सार: निष्पक्षता का पाठ। कबीर स्वयं को किसी के समर्थन या विरोध में नहीं बाँधते। आज के पक्षपातपूर्ण समाज में यह सीख अमूल्य है।
5. “जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ। मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ।”
सार: सच्चाई की खोज साहस माँगती है। जो जोखिम उठाते हैं, वे ही ज्ञान पाते हैं। यह दोहा कंफर्ट जोन छोड़ने की प्रेरणा देता है।
6. गुरुकृपा सो साधु कहावै। अनल पच्छ ह्वै लोक सिधावै।
धर्मदास यह परखो वानी। अनल पच्छ गम कहौ बखानी।।
सार : संसार से विरक्त साधु के लिए गुरु – कृपा से बढ़कर कुछ नहीं होता , गुरु की महान कृपा से साधु कहलाता है और वह अनल पक्षी के समान होकर सत्य लोक ( मुक्त-धाम ) को जाता है।
7. मन वच कर्म गुरु ध्यान , गुरु आज्ञा निरखत चलै।
देहि मुक्ति गुरु दान , नाम विदेह लखाय कै।।
सार :