सत्य कबीर

अनंत कोटि ब्रह्मांड में, बन्दीछोर कहाय।
सो तो पुरुष कबीर है , जननी जना न माय ॥
साहिब पुरुष कबीर ने,देह धरी नहि कोय ।
शब्द स्वरुपी रूप है, घट -घट बोलै सोय ॥
सेवक होकर उत्तरे ,इस पृथ्वी के माहि।
जीव उधारन जगत गुरू, बार-बार बलि जाहि॥

सत्य कबीर

Kabir saheb photo 7 1 सत्य कबीर

दादा भाई बाप के लेखे, चरनन होई हाँ बन्दा ।

अबकी पुरिया जो निरुवारे, सो जन सदा अनंदा ॥ १ ॥

किते मनाऊं पाऊं परि, किते मनाऊं रोय ।

हिन्दू पूजे देवता, तुरुक न काहू होय ॥ २ ॥kabir

सद्गुरु

सत्य कबीर

साहेब की योग साधना अन्य योगियों से अलग है। आपकी साधना का लक्ष्य स्वस्वरूप स्थिति प्राप्त है। आचार, विचार और इन्द्रिय संयम के द्वारा मनोवृत्ति को विषय-विकारों से शून्य करके स्वस्वरूपस्थ होना ही योग-साधना है। मन की चंचलता का एकमात्र कारण विषय शक्ति ही है। विषयासक्ति रूप मल को वैराग्य से, अनेक जड़-संस्कारों की चंचलतारूप विक्षेप को आराधना से तथा स्वसँरूप के अज्ञानरूप ग्रहण को सत्संग से निवृत्त किया जा सकता है। इसी योग साधना से जीवनमुक्ति का अलभ्य लाभ ग्रहण करते हैं विदेह मुक्तिरूप महामोक्ष फल प्राप्त करना ही साधक का परमोदय है। कबीर

सत्य कबीर

जनसाधारण से लेकर संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी एवं विभिन्न भाषा-भाषी उच्चकोटि के मूर्धन्य विद्वानों ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सही सदुपयोग करके यह सिद्ध कर दिया है कि-सही मायने में वर्तमान भारत की एवं समस्त विश्व की सामाजिक, राजनीतिक, चारित्रिक, आर्थिक, आध्यात्मिक एवं मानवीय चिन्तनधारा की उलझनों का सही समाधान संत सम्राट सद्गुरु कबीर साहेब की वाणियों द्वारा ही मिल सकता है।कबीर

सत्य कबीर

उन्हें केवल दैनिक व्यावहारिक जीवनब्रह्मरन्ध्र में प्राणवायु रोककर ज्योतिर्ब्रह्म का दर्शन करना योगसाधना का फल नहीं है। यह तो केवल प्राणवायु का चमत्कार है। स्वस्वरूप दर्शन नहीं है। आत्मतत्व दर्शन का विषय नहीं है। वह स्वानुभूतिरूप है। दर्शन मयिक मादक द्रव्य का विषय होता है। मूलतः सद्गुरु कबीर साहेब की योगसाधना का विषय साक्षी चेतन जीवात्मा है।

जनसाधारण से लेकर संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी, उर्दू, फारसी एवं विभिन्न भाषा-भाषी उच्चकोटि के मूर्धन्य विद्वानों ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सही सदुपयोग करके यह सिद्ध कर दिया है कि-सही मायने में वर्तमान भारत की एवं समस्त विश्व की सामाजिक, राजनीतिक, चारित्रिक, आर्थिक, आध्यात्मिक एवं मानवीय चिन्तनधारा की उलझनों का सही समाधान संत सम्राट सद्गुरु कबीर साहेब की वाणियों द्वारा ही मिल सकता है। उन्हें केवल दैनिक व्यावहारिक जीवन

में उतारने की जरूरत है। इसी आचार-विचार और ज्ञान की पवित्रता से हम महान बन सकते हैं। समझदारी ही सत्यता का सोपान है। सत्याचरण ही शांति का केन्द्र है। मानवता ही मोक्ष का मन्दिर है। बीजक ज्ञान ही उन्नतिशील मानव जीवन की जननी है।

कबीर

सत्य कबीर

साहेब की वाणियों में मानव जीवन के सुख एवं कल्याण की सभी बातें समाहित हैं। वस्तुतः यह प्रश्न सदा से अनिवार्य रहा है कि मानव किस प्रकार सजग, सचेत हो, किस प्रकार उसका जीवन समुन्नत बने और कैसे वह सब कठिनाइयों पर विजय पाए ?

रचनात्मक क्रियाशीलता मानव जीवन में अत्यंत जरूरी है। निष्क्रियता मानव को जड़ बनाती है। उसकी प्रतिभा का हनन होता है। जड़ता मानव-मन में निराशा भर देती है। ऐसा व्यक्ति जीवन में सफलता से वंचित रहता है। ऐसे जड़ और निष्क्रिय व्यक्ति समाज पर बोझ बनते हैं। उनका जीवन निरर्थक होता है। ऐसे लोगों को अपने जीवन-लक्ष्य का कोई पता नहीं होता। यह निराश और हारे हुए चित्त की दशा है। चिंतन करने से यह स्पष्ट होता है कि लक्ष्य को प्राप्त न कर सकना असफल होना नहीं है, किन्तु असफलता के भय से निष्क्रिय रहना ही वास्तव में असफलता है।

 कबीर

कार्य में असफल व्यक्ति को दोष देना ठीक नहीं, सचमुच दोषी तो वह है जो असफलता के भय से कार्य ही न करे। यही बात समझाते हुए सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं-

मारग चलता जो गिरे, ताको नाही दोष ।

कहैं कबीर बैठा रहे, ता सिर करड़े कोस ॥

 

मनुष्य को निराशा का त्याग कर आत्मविश्वासपूर्वक निरंतर क्रियाशील रहना चाहिए। आत्मश्रद्धा से अपनी शक्ति का विकास करना चाहिए। कमजोर व्यक्ति कोई प्रतिष्ठा नहीं पाता। उसके मार्ग में निरंतर बाधाएं आती हैं। किन्तु समर्थ व्यक्ति उन बाधाओं को सीढ़ियां बनाकर पार कर जाता है। अपने आप में श्रद्धा होना, आत्मविश्वास होना जीवन में जरूरी है। सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि आत्मविश्वास-रहित व्यक्ति हारा हुआ है। जिसके मन में विश्वास नहीं वही हारा हुआ है। यथा-

मन के हारे हार है, मन के जीते जीत।

सत्य कबीर

परमातम को पाइये, मन ही के परतीत ॥ इस साखी के दो अर्थ हैं- एक नैतिक और दूसरा आध्यात्मिक। हम प्रथम नैतिक अर्थ का चिंतन करें “जिस मानव का मन हारा हुआ है, जिसके मन में हार का भय समाया हुआ है, उसकी अवश्य हार होती है। जिसके मन में जीत का पक्का विश्वास है, जीत उसी की होती है। मन के पक्के विश्वास से, सच्ची श्रद्धा से मानव परमात्मा का साक्षात्कार करने में समर्थ होता है।”

 कबीर

जिसका मन निरंतर नई आशाओं के संचार से, उत्साह से, श्रद्धा से भरा हुआ होता है। ऐसा व्यक्ति सदा सक्रिय रहता है। सम्पूर्ण उत्साह और शक्ति से जो प्रयत्न करता है वह कभी असफल नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति कठिनाइयों का सामना करते हुए निरंतर आगे बढ़ता ही जाता है तथा सफलता प्राप्त करके ही विश्राम लेता है। जिसके मन में श्रद्धा नहीं, विश्वास नहीं, उत्साह नहीं ऐसे व्यक्ति के हाथ से सफलता खिसक जाती है। कार्य-सिद्धि के लिए प्रत्येक व्यक्ति में आत्मविश्वास होना ही चाहिए।

सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि जिसके मन में हार समा जाती है, उसकी हार अवश्यंभावी है, क्योंकि विश्वास का अभाव हार को निमंत्रण देता है। जो विजय के विश्वास से भरा होगा जीत उसी की होगी।

व्यक्ति का विश्वास हिल जाए, उसके मन में निराशा घर कर जाए, तो उसकी क्रियाशक्ति घट जाती है और वह प्रयत्न करते हुए भी असफल हो जाता है। जो आत्म-विश्वास से भरा होगा उसकी मानसिक शक्ति बढ़ जाती है और वह पूर्ण विश्वास से कठोर परिश्रम करके सफलता पाकर ही रहता है। यही मन के विश्वास की विजय है।

साहेब की वाणियों में मानव की सभी समस्याओं का समाधान है, उनमें व्यवहार – परमार्थ के सभी सूत्र हैं, अतः अपने जीवन की सार्थकता के लिए उनका स्वाध्याय-चिंतन करना चाहिए।

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