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Kabir Amritvani Bodh Battisa | Kabir Aarti | 2023

Kabir Amritvani Bodh Battisa

इस ब्लॉग पोस्ट के माध्यम से Kabir Amritvani  Bodh Battisa लिख रहा हूँ | इस में सतगुरु कबीर साहेब और धरम दास साहेब के बिच हुयी अटूट ज्ञान की बातें है | बहुत ही मार्मिक ज्ञान ध्यान ,आत्मा और परमात्मा की व्याख्या है , आशा करता हूँ ये पोस्ट आप सभी भक्तों को पसंद आएगा साहेब बंदगी ।

Kabir Amritvani Bodh Battisa

 

बोध बत्तीसा प्रारम्भ 

बन्दीछोर कबीर गुरु, धर्मदास शिष जासु ।

तासु चरण बन्दन किये, होय अविद्या नासु ॥

मिथ्या सांसारिक-बंधनों से छुड़ाने वाले बन्दीछोड़ सद्गुरु कबीर साहेब हैं, जिनके अनन्य शिष्य धनी धर्मदास जी हैं। उन सद्गुरु कबीर साहेब के चरणों में प्रणाम करने से अज्ञान का नाश होता है।

(समर्पित शिष्य के प्रणाम-बन्दगी करने पर सद्गुरु उसे कल्याणमय सदुपदेश करते हैं, जिससे उसका समस्त अज्ञान क्षय होता चला जाता है)।

 

Kabir Amritvani Bodh Battisa ‘छन्द’

सोय रह्यो नित मोह निशा महं, जानि परो नहिं राम पियारो ।

जन्म अनेक गये सपनान्तर, एकहु बार न जागृत धारो ॥

आदि गुरु तब देखि दया करि, तीसा यंत्र शब्द उचारो ।

चारहु वेद पुरान अठारह, सोधि कह्यो यह तत्त विचारो ॥

धनी धर्मदास जी कहते हैं कि मानव मोह की रात्रि में सदा से पड़ा सो रहा था, उसको अपना प्यारा आत्माराम समझ नहीं पड़ता था। इसी कारण नाना स्वप्नों की भांति उसके अनेक जन्म बीत गए, किन्तु एक बार भी उसे बोधयुक्त जागृत- अवस्था नहीं मिली। उसकी ऐसी दशा

देखकर आदि सद्गुरु कबीर साहब को दया आई, तब उन्होंने इस तीसा यंत्र का शब्दोपदेश किया। चार वेद और अठारह पुराणों का सार यह महत्त्वपूर्ण तीसा-यंत्र, उन्होंने सब तत्त्व-ज्ञान विचार एवं शोध कर कहा।

Kabir Amritvani Bodh Battisa ॥ साखी ॥

जीव कृतारथ कारने, भाषा कीन विचार ।

तीसा जंतर बूझिके, नर उतरे भव पार ॥

सर्व-सामान्य मनुष्यों के उद्धार का विचार कर, यह तीसा-यंत्र सरल भाषा में कहा गया है। इस तीसा-यंत्र को भली प्रकार समझकर मनुष्य इस विकराल संसार- सागर से पार हो जाए।

कलि में जीवन अल्प है, करिये बेगि सम्हार।

तप साधन नहिं हो सके, केवल नाम अधार ॥

इस कलियुग में मनुष्य का जीवन (आयु) बहुत ही कम होता है, इसलिए स्वयं को शीघ्र ही संभालना-संवारना चाहिए। इस युग में मनुष्य से तप आदि कठिन साधन तो बन नहीं सकते, मुक्ति के लिए केवल सद्गुरु के सार-नाम का आधार है।

जगाइए क्या ? प्रेम Kabir Amritvani Bodh Battisa

प्रेम जगावै विरह को, विरह जगावै पीव ।

पीव जगावै जीव को, वही पीव वहि जीव ॥

 

उन्नत प्रेम, विरह को जगाता है और विरह प्रभु को जगाता है। प्रभु अज्ञान- निद्रा में सोये पड़े जीव को जगाते हैं। यथार्थतः ज्ञान-दृष्टि से देखा जाए तो प्रभु और जीव दोनों एक ही हैं ॥ १ ॥

कीजिए क्या ? पूजा ( Kabir Amritvani Bodh Battisa)

पूजा गुरु की कीजिये, सब पूजा जिहि माहिं ।

ज्यों जल सींचे मूल को, फूले फले अघाहिं ॥

पूजा गुरु की करो, जिसमें सबकी पूजा समाहित है। जैसे-मूल (जड़) को जल सींचता है, तो उससे वृक्ष शाखा-पत्तों सहित फलता-फूलता और बढ़ता जाता है, वैसे ही गुरु-पूजा से सबकी पूजा स्वतः ही सम्पन्न हो जाती है ॥ २ ॥

परखिए क्या ? शब्द

परखो द्वारा शब्द को, जो गुरु कहै विचार। बिना शब्द कछु ना मिलै, देखो नैन उघार ।।

गुरु ने विचार कर जो शब्द कहा है, उसके उद्दिष्ट भाव को परखो, अर्थात उसे ध्यानपूर्वक समझो। बिना शब्द के कुछ भी भेद नहीं मिल सकता,  इस बात को अपनी आन्तरिक विवेक-दृष्टि खोलकर भली प्रकार देखो-समझो ।।3।

लीजिए क्या ? नाम

नाम मिलावे रूप को, जो जन खोजी होय ।

जब वह रूप हृदय बसे, क्षुधा रहे नहिं कोय ॥

जो विवेकी मनुष्य लगन से खोज करने वाला हो, तो नाम रूप को अवश्य मिला देता है। जब वह रूप हृदय में बस जाता है, तब उसे किसी प्रकार की भूख (कामना) नहीं रहती ॥ ४ ॥

करिए क्या ? सत्संग

करिये नित सतसंग को, बाधा सकल मिटाय ।

ऐसा अवसर ना मिलै, दुर्लभ नर तन पाय ॥

समस्त विघ्न-बाधाओं को मिटाकर, प्रतिदिन सत्संग करो। बहुत कठिनाई से मनुष्य का यह उत्तम शरीर पाकर, सत्संग करने का ऐसा अमूल्य अवसर बार-बार नहीं मिलेगा। (भक्ति-साधना आदि सब सत्कर्म इसी जीवन में कर लो) ॥ ५ ॥

बोलिये क्या ? मीठा (Kabir Amritvani Bodh Battisa)

मीठा सबसे बोलिये, सुख उपजे चहुं ओर ।

बसीकरण यह मंत्र है, तजिये बचन कठोर ॥

सबसे मीठा बोलो, जिससे सब ओर सुख उपजे और सबको सुख प्राप्त हो । यह दूसरों को वश में करने वाला वशीकरण मंत्र है, अतः कठोर वचनों का बोलना छोड़ दो। (मधुर वचन बोलने से शत्रु भी अपना मित्र हो जाता है) ॥ ६ ॥

होइए क्या ? दास

होय रहै जब दास यह, तब सुख पावै अन्त ।

देख रीति प्रह्लाद की, सबमें निरखो कन्त ॥

जब यह मनुष्य दास-भाव को ग्रहण करता है, तब इसके परिणाम-स्वरूप सुख पाता है। प्रह्लाद भक्त की भक्ति की रीति को समझकर विनम्र भाव से सबमें साहेब (प्रभु) को देखो ॥ ७ ॥

मानिये क्या ? सत्य

मानिये सब को सत्य है, जो जाको व्यवहार।

जन्म मरण दोऊ लगा, थिर होय देखु विचार ॥

जिस स्थिति में जो कुछ जैसा जिसका व्यवहार है, उसे सत्य ही मानो, अर्थात समझना चाहिए कि विधि अनुसार उस स्थिति में वैसे होना ही ठीक (सच) है। स्थिर होकर विचार करके देखो कि अज्ञान-स्थिति में जीव के साथ लगे जन्म-मरण दोनों ही सच हैं ॥ ८ ॥

बराइये क्या ? झगड़ा

झगरा नित्य बराइये, झगरा बुरी बलाय ।

दुख उपजे चिंता बढ़े, झगरा में घर जाय ॥

झगड़े को हमेशा हटाओ, क्योंकि झगड़ा बहुत बुरी आपदा है। झगड़े से दुःख उत्पन्न होता है और चिन्ता बढ़ती है, परिणाम-स्वरूप झगड़े में घर आदि सब नष्ट हो जाता है। (प्रेमपूर्वक झगड़े के कारण का समाधान करो) ॥ ९ ॥

खाइये क्या ? गम (Kabir Amritvani Bodh Battisa)

गम समान भोजन नहीं, जो कोइ गम को खाय ।

अम्बरीष गम खाइया, दुर्वासा बिललाय ॥

यदि कोई गम को खाए तो गम के समान सुखकारी कोई अन्य भोजन नहीं है। उदाहरण के तौर पर देखिए, राजा अम्बरीष ने गम खाया तो महर्षि दुर्वासा को उसके सामने हारना पड़ा। अतएव गम खाना विजय का प्रतीक है ॥ १० ॥

राखिये क्या ? निज धर्म

राखो निज निज धर्म को, दृढ़ गहिये सब काल।

निज धर्म जो आपन गहे, सहजे भये निहाल ॥

अपने-अपने धर्म को राखिए और धर्म को सदैव दृढ़तापूर्वक धारण करो। जिन्होंने अपने धर्म को दृढ़तापूर्वक ग्रहण किया, वे सज्जन सहज ही (सरलता से) कृतार्थ हो गए ॥ ११ ॥

त्यागिये क्या ? सबकुछ ( Kabir Amritvani Bodh Battisa)

त्याग जु ऐसा कीजिये, सबकुछ एकहिं बार।

सब प्रभु का मेरा नहीं, निश्चय किया विचार ॥

त्याग तो ऐसा करो कि एक ही बार में सब प्रभु को अर्पण कर दो। निश्चयपूर्वक विचार करना चाहिए कि सब प्रभु का है, मेरा कुछ नहीं। (भ्रमवश जिस देह- घर अथवा धन सम्पत्ति को अपना समझते हैं, सब स्वतः छूट जाता है) ॥ १२ ॥

छोड़िये क्या ? अभिमान Kabir Amritvani Bodh Battisa

छोड़ि झूठ अभिमान को, सुखी होय यह जीव ।

भावै कोई कछु कहै, हिय बसै निज पीव ॥

झूठ-अभिमान को छोड़कर, यह जीव सुखी हो जाता है। इसको समझ लेना चाहिए कि अपने भावानुसार चाहे कोई कुछ भी कहे, मेरा निज स्वामी तो मेरे हृदय में ही बसता है ॥ १३ ॥

पाइये क्या ? सुख

सुख पाओ निज रूप में, द्वैत भाव करि त्याग ।

निरखो आपा सबन में, रहै न दुख को लाग॥

द्वैत-भाव को त्यागकर अपने निज- स्वरूप में सुख पाओ। अपने आपको सबके हृदय में देखो, अर्थात जैसा अपना आपा (आत्म-स्वरूप) है, वैसा ही सबका है, ऐसा समझो। फिर दुःख की स्थिति नहीं रहेगी ॥ १४॥

 

देखिये क्या ? आत्माराम

देखो सबमें राम है, एकहि रस भरपूर ।

ऊखहि ते सब बनत है, चीनी शक्कर गूर ॥

समता के भाव से सबमें एक ही रस- रूपी भरपूर राम को देखो। जैसे ईख (गन्ना) से ही चीनी, शक्कर तथा गुड़ आदि बनता है, अर्थात सबमें ईख का ही मधुर रस समाया होता है, वैसे ही सबमें राम विद्यमान है ॥ १५ ॥

मिटाइये क्या ? भ्रम

भरम मिटा तब जानिये, अचरज लगै न कोय ।

यह लीला सब राम की, निरखो आपा खोय ॥

भ्रम मिटा हुआ तो तब जानो, जब किसी भी दृश्य अथवा कार्य को देखने से आश्चर्य न हो, किन्तु यह जान पड़े कि यह सब राम की लीला है। यह स्थिति पूर्ण अहंकार मिटाकर देखो ॥ १६ ॥

निरखिये क्या ? निज रूप Kabir Amritvani Bodh Battisa

निरखत अपने रूप को, थीर होय सब अंग ।

कहन सुनन कछु ना रहे, ज्यों का त्योंहि अभंग ॥

अपने स्वरूप को निरखने पर, अर्थात् निज स्वरूप का परिचय पाने पर, सर्वांग स्थिर एवं शान्त हो जाता है। ऐसी परम स्थिति आ जाने पर फिर कहने-सुनने के लिए कुछ भी शेष नहीं रहता। बस ज्यों का त्यों विद्यमान निजात्मा अभंग (सम्पन्न) रहता है ॥ १७ ॥

सुनिये क्या ? गुणवार्ता

 

सुनिये गुण की बारता, अवगुन गहिये नाहिं ।

हंस छीर को गहत है, नीर त्याग सो जाहिं ॥

सदैव केवल सद्गुणों की बात सुननी चाहिए, दूसरों के अवगुण कहे जाने पर भी उनको कदापि ग्रहण नहीं करना चाहिए। जैसे- सारग्राही हंस केवल दूध को ग्रहण करता है और पानी को वह दूर से ही छोड़ जाता है ॥ १८ ॥

साधिये क्या ? इन्द्रियां

साधे इन्द्रिय प्रबल को, जिहिं ते उठे उपाध।

मन राजा बहकावते, पांचों बड़े असाध ॥

अपनी प्रबल इन्द्रियों को साधना, अर्थात वश में करना चाहिए। जिनसे सब झगड़े- उपाधियां उठती हैं, अर्थात काम-मोहादि विकार उत्पन्न होते हैं। ये पांचों इन्द्रियां अपने विषयों से ही मन राजा को बहकाती एवं लुभाती रहती हैं ॥ १९ ॥

मारिये क्या ? आशा

मारिये आशा सांपिनि, जिन डसिया संसार।

ताकी औषध तोष है, यह गुरुमंत्र विचार ॥

आशा रूपी भयंकर सांपिनी को मार भगाओ, जिसने संसार के जीवों को डस लिया है। इसकी एकमात्र औषधि संतोष है, इस गुरुमंत्र, (विषनाशक गारुडि- मंत्र) को मन में विचार कर रखो ॥ २० ॥

दीजिये क्या ? दान

भूखे को कछु दीजिये, यथा शक्ति जो होय ।

ता ऊपर शीतल बचन, लखो आत्मा सोय ॥

भूखे को कुछ दान दीजिए। जो कुछ पास हो, यथाशक्ति भूखे को देना चाहिए। उसे अपना ही आत्मारूप देखकर, ऊपर से शीतल वचन भी बोलना चाहिए। (उससे उसे तो आत्मशांति मिलेगी ही, स्वयं को भी सुख होगा) ॥ २१ ॥

बड़ा पुण्य क्या ? दया Kabir Amritvani Bodh Battisa

दया पुण्य सबसे बड़ा, सबके ऊपर भाख।

जीव दया चित राखिये, वेद पुराण है साख ॥

दया-पुण्य सबसे बड़ा है, दया-भाव से ही परोपकार होता है। इसे सब धर्मों के ऊपर कहा गया है। अतएव जीव-दया को अपने चित्त में रखना चाहिए, यही वेद-पुराणों की सीख है ॥ २२ ॥

बड़ा पाप क्या ? हिंसा

बड़ा पाप हिंसा अहै, ता समान नहिं कोय ।

लेखा मांगै धर्म जब, तब सब नौबत होय ॥

बड़ा पाप जीव-हिंसा है, इसके समान कोई दूसरा पाप नहीं है। जीवात्मा के परलोक गामी होने पर जब धर्मराज उसके कर्मों का हिसाब मांगता है, तब उसकी पूरी छानबीन होती है और उस अनुसार उसे स्थिति भुगतनी होती है ॥ २३ ॥

खुशबोई क्या ?

यश खुशबोई यश की भली, फैल रही चहुं ओर।

मलयागिरी सुगन्ध है, प्रगट सबै जग शोर ॥

खुशबोई (सुगन्धि) तो यश की सबसे अच्छी होती है, जो अबाध-रूप से शीघ्र सब ओर फैल जाती है। जैसे सुगन्ध- शिरोमणि मलयागिरी, जिसकी ख्याति का सारे संसार में शोर प्रकट है। (सुकर्म करने से ही यश मिलता है) ॥ २४ ॥

दुर्गन्ध क्या ? अपयश

अपयश सम दुर्गन्ध नहीं, नीका लगे न सोय ।

जैसे मल के निकट में, बैठ सके ना कोय ॥

अपयश के समान दुर्गन्ध नहीं है, अतः वह किसी को भी अच्छा नहीं लगता। जैसे दुर्गन्ध के कारण मल के पास कोई नहीं बैठ सकता, वैसे अपयश वाले मनुष्य से सब दूर रहना चाहते हैं। (दुष्कर्मों का परिणाम ही अपयश है) ॥ २५ ॥

धारिये क्या ?

धीरज धीरज बुधि तब जानिये, समुझै सबकी रीत ।

उनके अवगुन आप में, कबहुं न लावै मीत ॥

हे मित्र ! धीरज-बुद्धि को धारना तो तब ही जानो, जब सबके व्यवहार को समझे और दूसरों के दुर्गुणों को कभी अपने मन में न लावे, अर्थात समभाव में रहते हुए स्वयं को सद्भाव में रखो ॥ २६ ॥

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ठहराइये क्या ?

मन मन ठहरा तब जानिये, अनसुझ सबै सुझाय ।

ज्यों अंधियारे भवन में, दीपक बारि दिखाय ॥

मन को ठहरा हुआ तब समझो, जब अनसूझ भी सब सूझने लगे, अर्थात अलौकिक बातों का अनुभव होने लगे। जैसे-दीपक जगाकर दिखाने से कमरे में सबकुछ दिखने लगता है, वैसे मन के स्थिर होने पर सब सूझने लगता है।

होनी क्या ? होनहार

होनी सोई होत है, होनहार जो होय ।

रामचन्द्र वन को गये, सुख आवत दुख जोय ॥

विधि अनुसार जो होने वाला होता है, वह असंख्य प्रयत्नों के करने पर भी होकर ही रहता है। देखिए, राज्याभिषेक के समय पर श्रीरामचन्द्र वन को गए, जिससे महाराज दशरथ के यहां सुख आता हुआ भी दुःख हो गया। (उस स्थिति को कोई टाल न सका) ॥ २८ ॥

विचारिये क्या ? Kabir Amritvani Bodh Battisa

निज तत्व जो निज तत्त्व विचारिके, राखे हिये समोय ।

सो प्रानी सुख को लहै, दुख नहिं दरसे कोय ॥

जो विवेकी जन निज तत्त्व को विचारकर, उसके सत्यानुभव को अपने हृदय में समाकर रखता है, वह परम सुख पाता है, उसको कोई दुःख नहीं होता ॥ २९ ॥

उपजाइये क्या ?

शील-क्षमा सील क्षमा जब ऊपजै, अलख दृष्टि तब होय ।

बिना सील पहुंचै नहीं, लाख कथे जो कोय ॥

शील-क्षमा जब हृदय में उपजते हैं, तब अलख-स्वरूप लखने की सर्वोच्च दृष्टि होती है और परम पद प्राप्त होता है। जो कोई लाखों कथनी करे, परंतु बिना शील- स्वभाव धारण किए मोक्ष-शिखर पर नहीं पहुंच सकता ॥ ३० ॥

सवैया

भाग जगे जब पूरब को तब, श्रीगुरुदेव दया करि हेरी ।

ज्ञान कपाट उघारि दियो तब, मोह निशा मारग ते फेरी ॥

थोरेइ में समझाय दियो तब, थीर भयी चंचल मति मेरी ।

सूझि परो सबही घट साहब, छूटि गयी सब तर्क घनेरी ॥

धनी धर्मदास जी सद्गुरु की स्तुति करते हुए कहते हैं कि जब मेरे पूर्व-जन्म के पुण्यों का उदय हुआ, तब सद्गुरु ने मुझ पर पूर्ण दया की। जब उन्होंने मेरे हृदय में ज्ञान के किवाड़ खोल दिए, तब उसी समय मेरे उद्देश्य-मार्ग से मोह की रात्रि हट गई।

उन्होंने मुझे थोड़े में ही सबकुछ समझा दिया। तब मेरी चंचल बुद्धि स्थिर हो गई। इसके फलस्वरूप मुझे घट-घट में साहेब दिखाई पड़ने लगे और उसी से मेरा सारा तर्क-वितर्क भी छूट गया। इति तीसा-यंत्र

 

सद्गुरवे नमः

 

बोध-बत्तीसा Kabir Amritvani Bodh Battisa

सद्गुरु कबीर साहेब मानवता के परम आदर्श हुए हैं। मानवोद्धार एवं धर्म के विकास हेतु ही उनका प्राकट्य हुआ है। परम संत-रूप में वे समय के महान सद्गुरु तथा संत-मत के प्रवर्तक माने जाते हैं।

भूले-भटके मानव को सत्य का बोध हो, वह सांसारिक माया मोह-जाल से छूटे और भवसागर से पार लगे, यही विचारकर उन्होंने दया- भाव से अपनी अमूल्य साखी-वाणियां कहीं।

उनकी अमृत साखियां असंख्य हैं, जो अंधविश्वास, प्रपंच-पाखंड,

रुढ़िवाद एवं समस्त संकीर्णताओं से हटकर निष्पक्ष समभाव से सत्य-तथ्य को दर्शाती हुईं, मोक्ष-स्वरूप परम आत्मा का साक्षात्कार कराती हैं।

‘बोध-बत्तीसा’ में उनकी उन सारगर्भित साखियों को संगृहित किया गया है, जो जन-सामान्य के लिए वरदान सिद्ध होंगी।

वे जीवन को भौतिकवाद की दुखद मोहासक्ति से अध्यात्म की आनन्दमयी-स्थिति में परिणत कराने में सहायक होंगी, ऐसा मेरा विश्वास है।

नये से नया जिज्ञासु भी उनका क्रमानुसार स्वाध्याय आचरण करके वांछित लक्ष्य को प्राप्त करने में समर्थ होगा। अतः सद्गुरु का प्रसाद समझकर उन्हें ग्रहण करें और जीवन को सफल बनाएं, यही मंगल कामना है। –

सत्यनाम

अथ बोध-बत्तीसा

गुरु को प्रणाम

गुरु को कीजै दण्डवत, कोटि कोटि परनाम ।

कीट न जाने भृंग को, गुरु कर ले आप समान ॥

गुरु को दण्डवत, बन्दगी तथा करोड़ों बार प्रणाम करो। कीट भृंग के स्वभाव को नहीं जानता, परंतु भृंग अपने गुण- कौशल से कीट को अपने सदृश बना लेता है, वैसे ही शिष्य को सत्यज्ञान प्रदान कर गुरु अपने सदृश बना लेते हैं। गुरु की शरण सुखदायी है। गुरु-ज्ञान को ग्रहण करने वाला जिज्ञासु ‘काक’ से ‘हंस’ हो जाता है ॥ १ ॥

गुरु का भावार्थ

गु अंधियारी जानिये, रु कहिये परकास ।

मिटे अज्ञान-तम ज्ञान ते, गुरु नाम है तास ॥

‘गु’ को अंधकार (अज्ञान) समझो और ‘रु’ को प्रकाश (ज्ञान) कहते हैं। जो निज ज्ञान-प्रकाश से अज्ञानांधकार को मिटा दे, उसका नाम है- ‘गुरु’ । अतएव जीवन में गुरु-ज्ञान होना आवश्यक है, बिना ज्ञान जीवन सार्थक न होगा ॥ २ ॥

गुरु का महत्त्व

गुरु बिन ज्ञान न ऊपजै, गुरु बिन मिलै न मोक्ष ।

गुरु बिन लखै न सत्य को, गुरु बिन मिटै न दोष ॥

गुरु के बिना ज्ञान नहीं उपजता, गुरु के बिना मोक्ष नहीं मिलता। गुरु के बिना किसी को सत्य का साक्षात्कार नहीं होता और गुरु के बिना तन, मन एवं वचन के दोष नहीं मिटते, अर्थात गुरु बिना जीवन अशान्त व निरर्थक सिद्ध होता है ॥ ३ ॥

सद्गुरु कैसा ?

सतगुरु ऐसा कीजिये, लोभ मोह भ्रम नाहिं ।

दरिया सो न्यारा रहे, दीसै दरिया माहिं ॥

सद्गुरु ऐसा करो, जिसके हृदय में लोभ, मोह एवं भ्रम न हो। वह संसार-रूपी सागर में रहते दिखते हुए भी, सांसारिक- विषयासक्ति से अलग रहे। ऐसे गुरु से ज्ञान पाकर ही सिद्धि प्राप्त होती है ॥ ४ ॥

गुरु को सर्वस्व समर्पण Kabir Amritvani Bodh Battisa

तन मन शीष निछावरै, दीजै सरबस प्राण।

कहैं कबीर दुख सुख सहै, सदा रहै गलतान ॥

गुरुचरणों में तन, मन, शीष, प्राण तथा सर्वस्व समर्पित कर दो। सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि इसमें जो दुःख- सुख हो, उसे समान भाव से सहो और

सदैव गुरु-भक्ति में लीन रहो। तभी गुरु- कृपा का अभीष्ट फल प्राप्त होगा ॥ ५ ॥

ज्ञान का हाथी

हस्ती चढ़िये ज्ञान का, सहज दुलीचा डार ।

स्वान रूप संसार है, भूकन दे झक मार ॥

कल्याण के लिए-सहज-स्थिति की कालीन डालकर, गुरु-प्रदत्त ज्ञान के हाथी पर सवार हो जाओ। संसार के अज्ञानी- जन तो कुत्ते के समान हैं, उन्हें झख मारकर भूकने दो। अपने कल्याण के सामने संसार के लोगों की परवाह न करो, वे जो कहते हैं, कहने दो ॥ ६ ॥

मनुष्य कौन ?

मानुष सोई जानिये, जाहि विवेक विचार ।

जाहि विवेक विचार नहिं, सो नर ढोर गंवार ॥

मनुष्य तो उसी को समझो, जिसके विवेक-विचार हैं। परंतु जिसके विवेक- विचार नहीं हैं, वह मनुष्य-रूप होकर भी गंवार पशु है ॥ ७ ॥

दुर्मति दूर करो

सकलो दुर्मति दूर करु, अच्छा जन्म बनाव ।

काग गौन गति छाड़ि के, हंस गौन चलि आव ॥

(हिंसा, चोरी, छल, असत्य एवं अनाचार आदि दोषों से युक्त) सारी दुर्बुद्धि दूर कर दो और अपने जीवन को अच्छा बनाओ। चंचल कौवे की कपट चाल एवं दशा को छोड़कर, सारग्राही हंस के उत्तम आचरण से चलकर मोक्ष-स्वरूप स्थिति में आओ ॥ ८ ॥

सद्गुण गहो

गुरुमुख शब्द प्रतीत कर, हर्ष शोक बिसराय।

दया क्षमा सत शील गहि, अमर लोक को जाय ॥

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गुरु-मुख के सार-शब्द पर विश्वास करो और संसार के हर्ष-शोक को भूल जाओ। दया, क्षमा, सत्य तथा शील आदि सद्गुणों को ग्रहण कर अमरलोक (मोक्षधाम) को जाओगे ॥ ९ ॥

अवगुण छोड़ो

मांस भखै मदिरा पिवै, धन वेस्वा सों खाय ।

जुआ खेलि चोरी करै, अंत समूला जाय ॥

जो मांस भक्षण करते हैं, मदिरा एवं किसी भी मादक पदार्थ का सेवन करते हैं, वेश्यावृत्ति से धन लेते-खाते हैं, जुआ खेलते हैं तथा चोरी करते हैं – अंत में वे समूल नष्ट हो जाते हैं, अत: उक्त अवगुणों को शीघ्र छोड़ देना चाहिए ॥ १० ॥

भाव-भक्ति Kabir Amritvani Bodh Battisa

भाव बिना नहिं भक्ति जग, भक्ति बिना नहिं भाव। भक्ति भाव इक रूप है, दोऊ एक सुभाव ॥

सुदृढ़ प्रेम के बिना भक्ति नहीं होती और भक्ति के बिना सुदृढ़ प्रेम नहीं होता । भाव भक्ति का एक ही स्वरूप है, क्योंकि दोनों का एक स्वभाव है। अतएव इसमें से जब कहीं एक होता है, तो दूसरा वहां स्वतः ही आ जाता है ॥ ११ ॥

भक्ति प्रमाण

विषय त्याग वैराग है, कहिये समता ज्ञान ।

सुखदाई सब जीव सों, यही भक्ति परमान ॥

विषय-भोगों का त्याग वैराग्य है। सम आत्मदृष्टि ज्ञान है और सब जीवों से सुखदायी व्यवहार-आचरण रखना, यही प्रामाणिक भक्ति है। (भक्ति, ज्ञान एवं वैराग्य से ही कल्याण होता है) ॥ १२ ॥

कनक-कामिनी का त्याग

एक कनक अरु कामिनी, तजिये भजिये दूर।

गुरु बिच पाड़े अंतरा, जम देसी मुख धूर ॥

अत्यधिक धन और काम-विषय में प्रवृत्त करने वाली कामिनी को त्यागकर दूर भागो, क्योंकि ये गुरु के ज्ञान-सत्संग में भेद डालते हैं और अंत में कुवासना रूपी मृत्यु मुख में धूल डालती है, अर्थात अत्यंत दुःख देती है ॥ १३ ॥

मैं-मेरी मत कर

मैं मेरी तू जनि करै, मेरी मूल विनासि ।

मेरी पग का पैखड़ा, मेरी गल की फांसि ॥

इस शरीर एवं संसार में ‘मैं-मेरी’ (अहन्ता-ममता) तू मत कर, मेरी, अर्थात अहन्ता-ममता विनाश की जड़ है और जीवन-कल्याण की नाशक है। ममता ही पांव की बेड़ी और यही गले की फांसी है ॥ १४ ॥

अपना कोई नहीं

कोई तो अपना नहीं, हम काहू के नाहिं ।

पार पहुंची नाव जब, मिलि सब बिछुड़े वही ॥

वस्तुतः इस जगत में हमारा कोई नहीं है और हम भी किसी के नहीं हैं। जैसे- नाव जब नदी के पार पहुंच जाती है, तब मिले हुए सब लोग बिछुड़ जाते हैं, वैसे ही यहां एक दिन सबको सबसे बिछुड़ जाना है ॥ १५॥

निन्दा मत करो

काहू को नहिं निन्दिये, चाहे जैसा होय ।

फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय ॥

किसी की निन्दा न करो, चाहे जैसा कोई हो। अपितु बार-बार उसके गुणों की प्रशंसा करो, यही साधु (उत्तम) लक्षण है ॥ १६ ॥

फूल बोओ

जो तुमको कांटा बुवै, ताहि बुवै तू फूल।

तुमको फूल को फूल है, वाको है त्रिशूल ॥

जो तुम्हारी राह में कांटे बोए, तुम उसकी राह में फूल बोओ। परिणामस्वरूप तुम्हें फूल बोने का फल तो फूल ही मिलेगा और उसे कांटा बोने का फल त्रिशूल मिलेगा ॥ १७ ॥

कर्मानुसार फल

करै बुराई सुख चहै, कैसे पावै कोय।

रोपै पेड़ बबूल का, आम कहां ते होय ॥

बुरा कर्म करके कोई सुख चाहे, तो वह कैसे पाएगा? बबूल का पेड़ लगाया है तो आम का फल कैसे मिलेगा ? जैसा कर्म होगा, उसका वैसा फल होगा ॥ १८ ॥

परिश्रम से सब संभव

परिश्रम ही ते सब होत है, जो मन राखै धीर।

परिश्रम ते खोदत कूप ज्यों, थल में प्रगटै नीर ॥

जो मन में धैर्य रखे, तो समयानुसार परिश्रम ही से होने योग्य सब होता है। जैसे परिश्रम से कुआं खोदने पर, कठोर भूमि में भी जल निकल आता है। इसी प्रकार अपनी की हुई करनी कभी निष्फल नहीं जाती ॥ १९ ॥

धर्म-कर्म से धन-हानि नहीं

दान दिए  धन ना घटे, नदी न घट्टै नीर।

अपनी आखों देखि ले, यों कथि कहैं कबीर ॥

धर्म-कर्म (सेवा, दान, परोपकार आदि) करने से धन कभी नहीं घटता, जिस प्रकार बहती नदी का जल निकाल लेने से नहीं घटता। सद्‌गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि धर्म-कर्म करके, अपनी आंखों से स्वयं देख लो ॥ २० ॥

जागो लोगो !

जागो लोगो मत सुवो, ना करु नींद से प्यार ।

जैसा सपना रैन का, ऐसा यह संसार ॥

ऐ लोगो ! जागो, अर्थात् सचेत हो जाओ, मत सोवो, मोह की नींद से प्यार न करो। जैसा सपना रात में दिखता है, वैसा ही यह संसार तथा इसका प्रत्येक सम्बंध है (किसी के मिथ्या मोह में न पड़ो ॥ २१ ॥

झूठा माया-मोह Kabir Amritvani Bodh Battisa

कबीर इस संसार की, झूठी माया नेह ।

जिहि घर जितना बधावना, तिहि घर तेता दोह॥

सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि इस संसार का सब माया-मोह झूठा है। जिस घर में धन-सम्पत्ति की जितनी अधिक वृद्धि और उसकी खुशी है, उस घर में उतना ही आपस में वैर-भाव एवं दुःख है। अतः माया-मोह से सदा बचें ॥ २२ ॥

संतोष-वृत्ति, Kabir Amritvani Bodh Battisa

सहज-रहनि निज आसन संतोष में, सहज रहनि की ठौर।

गुरु भजने आसा भई, ताते कछू न और ॥

जिनका निज आसन संतोष में है, अर्थात जो संतोष-वृत्ति में सुदृढ़ स्थित हैं, जो सहज भाव से उत्तम रहनी में टिके हैं, गुरु के सत्यज्ञान भजन में ही जिनकी आशा लगी होती है, और कुछ नहीं चाहते-सचमुच ऐसे पुरुष धन्य हैं। (वे दूसरों के लिए प्रेरणास्रोत हैं) ॥ २३ ॥

एक राम को जानो एक राम को जानि करि, दूजा देइ बहाय ।

तीरथ व्रत जप तप नहीं, सतगुरु चरण समाय॥

एक अन्तर्यामी परमात्मा रूप राम को जानकर दूसरा सब बहा छोड़ दो। तीर्थ, व्रत, जप एवं तप आदि से हटकर, सद्गुरु के चरणों में चित्त लगाए रहो ॥ २४ ॥

जड़-पूजा नहीं, संत-सेवा

पाहन पानि न पूजिये, सेवा जासी बाद।

सेवा कीजै साधु की, राम नाम कर याद ॥

अपने जीवन कल्याण के लिए जड़ पत्थर, पानी आदि की सेवा-पूजा मत करो, वह व्यर्थ जाएगी। मन की व्याधि को हरने एवं सत्यज्ञान सुनाने वाले संत- गुरु की सेवा-संगति करो और राम- नाम का सुमिरन ॥ २५ ॥ राम भजो-विकार तजो

एक सब्द में सब कहा, सब ही अर्थ विचार।

भजिये निसदिन राम को, तजिये विषय विकार ॥

सब ही अर्थों को भली प्रकार विचारकर एक ही शब्द में सब कह दिया कि कल्याण के लिए रात-दिन राम को भजो और काम, क्रोध, लोभ आदि सब विषय- विकारों को त्यागो ॥ २६ ॥

परमात्म-ज्योति

मन मक्का दिल द्वारिका, काया काशी जान ।

दस द्वारे का देहरा, ता में ज्योति पिछान॥

संयमित किया हुआ निर्मल मन ही ‘मक्का’ तथा दयापूर्ण दिल ही ‘द्वारिका’ है और विशुद्ध आचरण की काया को ही ‘काशी’ समझो। ऐसा मनुष्य-शरीर दश द्वारों का देवालय (मंदिर) है, इसमें ज्योति-स्वरूप चैतन्य परमात्मा राम को विवेक से पहचान-समझ लो ॥ २७ ॥

सांस-सांस पर नाम लो Kabir Amritvani Bodh Battisa

सांस सांस पर नाम ले, वृथा सांस मति खोय ।

ना जाने इस सांस को, आवन होय न होय ॥

सांस-सांस पर प्रभु का सत्य नाम लो, एक भी सांस व्यर्थ मत जाने दो। न जाने इस सांस का आना हो या न हो, अर्थात कोई नहीं जानता कि इस सांस का आना- जाना कब रुक जाए ॥ २८ ॥

सुमिरन-ध्यान-साधना 

मन थिर तन थिर बचन थिर, सुरति निरति थिर होय ।

कहैं कबीर उस पल को, कल्प न पावै कोय ॥

सद्गुरु कबीर साहेब कहते हैं कि जब ‘तन, मन, वचन स्थिर हो जाते हैं और

उनके साथ निर्मल चित्त-वृत्ति भी पूर्णतः शान्त-स्थिर हो जाती है, तो सुमिरन- ध्यान की उस साधना-स्थिति में उस पल को कोई कल्प नहीं पाता अथवा उस पल की परमानन्द स्थिति को कोई कल्प नहीं पा सकता ॥ २९ ॥

समाधि-काल Kabir Amritvani Bodh Battisa

जाप मरै अजपा मरै, अनहद भी मरि जाय ।

सुरति समानी शब्द में, ताहि काल नहीं खाय ॥

सुमिरन-ध्यान की उच्चतम स्थिति में, जहां जाप-अजाप और अनहद शब्द भी समाप्त हो जाते हैं, तब उस समाधि- काल में समाधिस्थ साधक की चित्त- वृत्ति अविनाशी आत्म-स्वरूप में विलीन हो जाती है, उसे काल नहीं खाता ॥ ३० ॥

जीव-दया, आत्म-पूजा Kabir Amritvani Bodh Battisa

राम नाम सुमिरन करै, सतगुरु पद निज ध्यान ।

आतम पूजा जीव दया, लहे सो मुक्ति अमान ॥

जो राम-नाम का सुमिरन करता है और सद्गुरु के चरणों में अपना ध्यान लगाता है। सब जीवों पर दया करते हुए आत्म- पूजा (सेवा) करता है, वह अवश्य महान मुक्ति-पद पाता है (अतएव इस सत्य- ज्ञान को जीवन में धारण करो) ॥ ३१ ॥

सारउपदेश

आपा तजै हरि भजै, नख शिख तजै विकार।

सब जीवन से निर्वैर रहै, साधु मता है सार॥

कल्याणेच्छुक जिज्ञासु को चाहिए कि वह अहंकार को छोड़े, हरि का भजन करे, नख से शिखा तक के समस्त विकारों का परित्याग करे, सब जीवों से बैर- रहित (सहज प्रेम-भाव से) रहे, यह संतों का सार मत है ॥ ३२ ॥

इति बोध-बत्तीसा Kabir Amritvani Bodh Battisa

विनती

‘सत्यज्ञान प्रदाता सद्गुरु के विरह में व्याकुल शिष्य की विनती उसे सफलता के द्वार पहुंचाती है।’

छन्द

गुरु दुखित तुम बिनु रटहु द्वारे, प्रगट दर्शन दीजिये।

गुरु स्वामिया सुनु विनती मोरी, बलि जाऊं विलंब न कीजिये ॥

गुरु नैन भरि भरि रहत हेरो, निमिष नेह न छांड़िये ।

गुरु बांह दीजे बंदीछोर सो, अबकी बंध छोड़ाइये ॥

विविध विधि मन भयेउ व्याकुल, बिनु देखे अब ना रहों।

तपत तन में उठत ज्वाला, कठिन दुख कैसे सहों ॥

गुण अवगुण अपराध क्षमा करो, अब न पतित बिसारिये ।

यह विनती धर्मदास जन की, सतपुरुष अब मानिये ॥

सद्गुरु कबीर साहेब को धर्मदास जी विनती करते हुए कहते हैं कि हे सद्गुरु ! आपके बिना मैं बहुत दुःखी हूं और आपके द्वार पर खड़ा हुआ आपको पुकार रहा हूं, इसलिए आप प्रकट होकर मुझे दर्शन दीजिए। हे सद्गुरु स्वामी! आप मेरी इस विनती को सुनिए, मैं आप पर बलि जाता हूं, अर्थात मैं आपको पूर्णतः समर्पित हूं, अब दर्शन देने में तनिक भी देरी न कीजिए।

मैं अपने अश्रु भरे नयनों को इधर-उधर घुमाकर चारों ओर आपको खोज रहा हूं, आप पल-भर भी मेरे प्रेम (भक्ति-भाव) को न भुलाइए। हे बन्दी छोड़ सद्गुरु ! आप मुझे अपनी बांह का सहारा दीजिए और अबकी बार माया- मोह-बन्धन से छुड़ाइए।

विभिन्न प्रकार से मेरा मन व्याकुल हो गया है, अब मैं आपके दर्शन देखे बिना नहीं रह सकता। मेरे शरीर अर्थात हृदय में आपके विरह की प्रचंड ज्वालाएं उठ रही हैं। आप ही बतलाइए कि मैं इस कठिन दुःख को कैसे सहूं ?

हे प्रभो! मेरे समस्त गुण-अवगुणों एवं अपराधों को क्षमा करिए और (मैं हर प्रकार से आपका हूं) मुझ पतित को अब मत भुलाइए। हे सत्यपुरुष स्वामी ! अपने दास धर्मदास की इस विनती को अब अवश्य मान लीजिए।

वन्दना-साखी Kabir Amritvani Bodh Battisa

नमों नमों गुरुदेव को, नमों कबीर कृपाल ।

नमों संत शरणागति, सकल पाप होय छार ॥

बंदी छोर कृपाल प्रभु, विघ्न विनाशक नाम ।

अशरण शरण बंदौं चरण, सब विधि मंगल धाम ॥

गुरुदेव एवं दयालु कबीर साहेब को मैं बार-बार प्रणाम करता हूं और जिन महान सन्तों की शरणागत होने पर सब पाप जलकर राख (नष्ट) हो जाते हैं, उन्हें भी सादर प्रणाम करता हूं ॥ १ ॥ जिनका विघ्न-विनाशक नाम है, जो अशरण (असहाय) को शरण देने वाले और सर्व-बन्धनों से छुड़ाने वाले

बन्दीछोड़ कृपालु प्रभु हैं, उनके श्रीचरणों की मैं वन्दना करता हूं, जो सब प्रकार से मंगल के धाम हैं ॥ २ ॥

विनती से प्रसन्न सद्गुरु का प्रकट होकर दर्शन देना

धर्मदास विनय करि, विहसि गुरुपद पंकज गहु । हे प्रभो होहु दयाल, दास चित्त अति दहे ॥ आदि नाम स्वरूप शोभा, प्रगट भाष सुनाइये। काल दारुण अति भयंकर, कीट भृंग बनाइये ॥

धर्मदास जी की विनती से सद्गुरु कबीर साहेब ने प्रकट होकर दर्शन दिए। धर्मदास जी ने प्रसन्न होकर उनके श्री चरण- कमलों को स्पर्श किया और फिर विनती

करते हुए कहा कि हे प्रभो! आप मुझ पर दयालु होइए। आपके मुझ दास का चित्त आपकी दया के बिना सांसारिक- तापों से अत्यन्त दहक रहा है ॥ ३ ॥

आदिनाम सत्यपुरुष के अलौकिक स्वरूप-शोभा को आप मुझे स्पष्ट रूप से सुना एवं समझा दीजिए। निर्दयी काल बहुत भयंकर है (न जाने कब क्या कर डाले), अतः आप मुझे निम्न कीट (अज्ञान रूप) से भृंग (ज्ञान-स्वरूप) बना दीजिए। जिससे सेवा-भक्ति करके मेरा जीवन सफल हो जाए ॥ ४॥

सद्गुरु का वचनोपदेश आदि नाम निःअक्षर, अखिल पति कारनम्।

सो प्रगट गुरु रूप, तो हंस उबारनम ॥

सतगुरु चरण सरोज, सुजन मन ध्यावही ।

जरा मरण दुख नास्ति, असल घर पावही ॥

हे धर्मदास ! आदि नाम सत्यपुरुष निरक्षर हैं, वही सम्पूर्ण सृष्टि के स्वामी तथा सबों के कारण हैं और वही गुरु के रूप से प्रकट होकर हंस-जनों का उबार (उद्धार) करते हैं ॥ ५॥

अतएव जो ज्ञानवान सज्जन सद्गुरु स्वामी के चरण-कमलों को मन में ध्याते हैं, अर्थात एकाग्र मन से उनका ध्यान करते हैं, वे बुढ़ापा और मृत्यु के दुःख का नाश करके, अचल-घर (सत्य-लोक अथवा मोक्ष धाम) को प्राप्त होते हैं। अतएव मोहासक्ति त्याग कर, सद्गुरु के चरणों का ध्यान करना चाहिए ॥ ६ ॥

मन्त्रयोग-नामधुन 수 Kabir Amritvani Bodh Battisa

सत्य नाम सत्य नाम सत्य नाम बोल । जय करुणामय सत्यनाम बोल ॥

गर्भवास में भक्ति कबूले, बाहर आकर उसको भूले। पूरा करो तुम अपना कौल, जय करुणामय सत्यनाम बोल ॥

मानुष तन तुम पाय के प्यारे, सोते हो क्यों पांव पसारे? ज्ञान हीन नर आंखें खोल ।

जय करुणामय सत्यनाम बोल ॥

लोभ घमंड सभी बिसराओ, विषयों से तुम चित्त हटाओ।

सत्य वचन मुख हरदम बोल। जय करुणामय सत्यनाम बोल ॥

घट-घट में वह रमे निरंतर, मत जानो तुम उसको अंतर ।

सत्य तराजू लेकर तोल, जय करुणामय सत्यनाम बोल ॥

सत्य लोक की ऐसी बाता, कोटि शशि इक रोम लजाता।

जहां पर हंसा करत किलोल, जय करुणामय सत्यनाम बोल ॥

सुधा रूप यह वचन हमारा, सेवक संतों करो पुकारा।

पुरुष नाम है अमी अमोल । जय करुणामय सत्यनाम बोल ॥

॥ सद्गुरवे नमः ॥

आरती Kabir Amritvani Bodh Battisa

जय जय सत्य कबीर, साहेब जय जय सत्य कबीर

सत्य नाम सत् सुकृत, सत रह हत कामी।

विगत कलेश सत धामी, त्रिभुवनपति स्वामी ॥

जयति-जयति कबीरं, नाशक भव पीरम्।

धार्यो मनुज शरीरं, शिशुवर सर तीरम् ॥

कमलपत्र पर शोभित, शोभाजित कैसे।

नीलाचल पर राजित, मुक्तामणि जैसे ॥

परम मनोहर रूपं, प्रमुदित सुखरासी।

अति अविनव अविनाशी, काशीपुर वासी ॥

हंस उबारन कारण, प्रगटे तन धारी।

पारख रूप विहारी, अविचल अविकारी ॥

साहेब कबीर की आरती, अगणित अघहारी ।

धर्मदास बलिहारी, मुद मंगलकारी ॥

साहेब कबीर की आरती, जो कोई जन गावै ।

पावै भक्ति पदारथ, भव में नहीं आवै ॥

साहेब बन्दगी, साहेब बन्दगी, साहेब बन्दगी

 

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