KABIR ARTI | कबीर साहेब आरती | कबीर गुरु महिमा Magic 1

सभी भाई बंधुओ को साहेब बंदगी इस पोस्ट में KABIR ARTI कबीर साहेब आरती , कबीर गुरु महिमा

के बारे में लिख रहा हूँ आशा करता हूँ। आप सभी को पसंद आएगा साहेब बंदगी

KABIR ARTI

 

KABIR ARTI वंदना साखी

वारो तन मन धन सबै, पद परखावन हार । युग अनंत जो पचि मरे, बिन गुरु नहीं निस्तार ।। सरवर तरूवर सन्त जन, चौथा वर्षे मेह । परमारथ के कारणे, चारों धारी देह ।। जीवन यौवन राजमद अविचल रहे न कोय । जो दिन जाय सतसंग में जीवन का फल होय ।। सत्य नाम को सुमर के तर गये पतित अनेक । तेहि कारण नहिं छोड़िए सतयनाम की टेक 11

KABIR ARTI आरती (१)

 आरती गरीब निवाज, साहेब आरती हो । आरती दीनदयाल, साहेब आरती हो ।।

ज्ञान अधार विवेक की बाती, सुरति ज्योत जहाँ जाग ।। १ ।।

आरती करूं सद्गुरु साहेब की, जहाँ सब सन्त समाज ।। २ ।।

दरश परस गुरु चरण शरण भयो, टूटि गयो यम के जाल ।। ३ ।।

साहेब कबीर सन्तन की कृपा से, भयो परम परकाश । ४।।

KABIR ARTI आरती  (२)

जय जय सत्य कबीर

सत्यनाम सत सुकृत, सतरत हतकामी । विगत क्लेश सतधामी, त्रिभुवन पति स्वामी ।। टेक ॥।

जयति जयति कबीरं, नाशक भवपीरम् । धार्यों मनुज शरीरं, शिशुवर सर तीरम् ।। जय ।।

कमल पत्र पर शोभित, शोभाजित कैसे । नीलाचल पर राजित, मुक्तामणि जैसे ।। जय ।।

परम मनोहर रूपं, प्रमुदिल सुखराशी । अति अभिनव अविनाशी, काशीपुर वासी ।। जय ।1

हंस उबारन कारण, प्रगटे तन धारी। पारख रूप विहारी, अविचल अविकारी ।। जय ।।

साहेब कबीर की आरती, अगणित अघहारी । धर्मदास बलिहारी, मुद मंगलकारी ।। जय ।।

KABIR ARTI आरती  (३) 

 

ध्यायेतं सद्गुरु श्वेतरूपममलम् श्वेतांबरं शभितम् ।

कर्णेन कुण्डल श्वेत शुभ्र मुकुटं हीरामणी मंडितम् ।

नानामालमुक्तादि शोभित गला पद्मासने सुस्थितम् ।

दयाब्धिधीर वीर सुप्रसन्न वदनम् सद्गुरु तन्नमामि ।

द्वै पदं द्वै भुजं प्रसन्नवदनं द्वै नेत्रं दयालम् ।

सेली कण्ठमाल ऊर्ध्व तिलकम्, श्वेताम्बरी मेखला ।

चक्रांकित शिर टोप रत्न खचितम् द्वै पञ्चताराधरे ।

वन्दे सद्गुरु योग दण्ड सहितम् कब्बीर करुणामयम् ।

ध्यान मूलं गुरोर्मूतिः, पूजा मूलं गुरोः पदम् ।

मन्त्र मूलं गुरोर्वाक्यं, मोक्ष मूलं गुरोः कृपा ।।

KABIR ARTI साखी

वन्दनिये गुरु परख को बार-बार कर जोर ।

दया करण संशय हरण सन्त रूप प्रभु तोर ।।

मंगलमय मंगल करण मंगल रूप कबीर ।

ध्यान धरत नाशत सकल कर्म जनित भव पीर ।।

वन्दौ सनमुख पारखी शीश भेंट धरूँ हाथ ।

वचन उचारो बन्दगी सत्य प्रेम के साथ ।।

साहेब बन्दगी । साहेब बन्दगी । साहेब बन्दगी ।

KABIR ARTI शब्द

सद्गुरु शब्द सहाई, साधु ! सद्गुरु शब्द सहाई ।

निकट गये तन रोग न व्यापे, पाप ताप मिट जाई ।।

अटवन पटवन दृष्टि न लागे, उलट थिरि धर थाई ।

साधु सद्गुरु शब्द सहाई ।।

मारन मोह उच्चाटन वशीकरण, मनहि मन पछताई ।

जादू जन्तर जुक्ति भुक्ति नहिं लागे, शब्द के बाण ढहाई ।।

साधु सद्गुरु शब्द सहाई ।।

ओझा डाईन डरसे डपटे, जार जूर होई जाई ।

विषधर मन में करि पछतावा, बहुरि निकट नहि आई ।।

साधु सद्गुरु शब्द सहाई ।।

जहँ लग देवी काली के गुण, सन्त चरण लौलाई,

कहँहि कबीर काटो यम फंदा, सत सुकृत लाख दोहाई ।।

साधु सद्गुरु शब्द सहाई ।।

KABIR ARTI प्रथम गुरु महिमा प्रारम्भ

 गुरु की शरण लीजै भाई । जासे जीव नरक नहिं जाइ ।

गुरुमुख होइ परम पद पावै । चौरासी में बहुरि न आवै ||१||

गुरुपद सेवै बिरला कोई । जापर कृपा साहब की होई ।

गुरु बिन मुक्ति न पावै भाई । नर्क उर्ध्वमुख बासा पाई ||२||

गुरु की कृपा कटे यम फाँसी। बिलम्ब न होय मिलै अविनाशी

गुरु बिन काहु न पायो ज्ञाना। ज्यों थोथा भुस छाड़े किसाना ||३||

गुरु महिमा शुकदेवजी पाई । चढ़ि विमान बैकुण्ठे जाई ।

गुरु बिन पढ़े जो वेद पुराना । ताको नाहिं मिले भगवाना ||४||

गुरुसेवा जो करे सुभागा । माया मोह सकल भ्रम त्यागा ।

गुरु की नाव चढ़े जो प्रानी । खेई उतारे सतगुरु ज्ञानी ||५||

तीर्थ व्रत और सब पूजा । गुरु बिन दाता और न दूजा ।

नौ नाथ चौरासी सिद्धा । गुरुके चरण सेवे गोबिन्दा ||६||

गुरु बिन प्रेत जन्म सो पावै । वर्ष सहस्र गरभ रहावै ।

गुरु बिन दान पुण्य जो करहीं। मिथ्या होय कबहुँ नहिं फलहीं ||७||

गुरु बिन भर्म न छूटे भाई । कोटि उपाय करे चतुराई ।

गुरु बिन होम यज्ञ जो साधे । औरो मन दश पातक बाँधे ||८||

सतगुरु मिले तो अगम बतावे । यमकी आँच ताहि नहिं आवे ।

गुरु सीढ़ी चढ़ि ऊपर जाई । सुखसागर में रहे समाई ||९||

अपने मुख गुरु निन्दा करई । शूकर श्वान जनम सो धरई ।

निगुरा करै मुक्ति की आशा । कैसे पावै मुक्ति निवासा ||१०||

औरो शुकर देह सो पावै । सतगुरु बिना मुक्ति नहिं पावै ।

गौरी शंकर और गणेशा । उन भी लीन्हा गुरु उपदेशा ।।११।।

शिव विरंचि गुरु सेवा कीन्हा । नारद दीक्षा ध्रुव को दीन्हा ।

सतगुरु मिले परम सुखदाई । जनम जनम का दुःख नशाई ||१२||

जन गुरु किया अटल अविनाशी। सुरनर मुनि सब सेवकरासी ।

भवजल नदिया अगम अपारा। गुरु बिन कैसे उतरे पारा ||१३||

गुरु बिन आतम कैसे जानै । सुख सागर कैसे पहिचानै ।

भक्ति पदारथ कैसे पावै । गुरु बिन कौन राह बतलावे ||१४||

गुरु मुख नाम देव रैदासा । गुरु महिमा उनहुँ परकाशा ।

तैंतिस कोटि देव त्रिपुरारी । गुरु बिन भूले सकल अचारी ।।१५।।

गुरु बिन लख भरमे चौरासी । जन्म अनेक नर्क के बासी ।

गुरु बिन पशू जनम सो पावै । फिर फिर गर्भवास में आवै ।।१६।।

गुरु विमुख सोई दुख पावै । जनम जनम सोई डहकावै ।

गुरु सेवे जो चतुर सयाना । गुरु पटतर कोई और न आना || १७||

गुरुकी सेवा मुक्ति निज पावै, बहुरि न हंसा भव जल आवै । 1

KABIR ARTI साखी

सतगुरु दीनदयाल हैं, जिन दिया मुक्ति को धाम ।

मनसा वाचा कर्मना, सुमिरो सतगुरु नाम ।।१।।

सत्त शब्द के पटतरे, देवे को कुछ नाहिं ।

कहाँ ले गुरु संतोषिये, हवस रही मन माहिं ।। २॥

अति ऊँहा गहिरा घना, बुद्धिवन्ता बहु धीर ।

सो धोखा बिचले नहीं, जो सतगुरु मिलैं कबीर ।।३॥

KABIR ARTI गुरु महिमा ( २ )

द्वितीय गुरु महिमा प्रारम्भः

गुरु देव की महिमा वरनों । जो गुरुदेव तुम्हारी सरनों ।

गावतहीं गुन पार न पावै । ब्रह्मा शंकर शेष गुण गावै प्रथमहीं गुरु ऐसा कीन्हा ।

तारक मन्त्र राम को दीन्हा । माला तिलक दिया सरूपा । जाको बन्दे राजा भूपा ||२||

ज्ञान गुरु उपदेश बताया । दया धर्म की राह चिन्हाया ।

जीव दया घटहीं में होई । जीव दया ब्रह्म है सोई ||३||

गुरु से अधीन चेला बोले । खरा शब्द गुरु अंतर खोले ।

खारा मिश्री बचने खमै । गुरु के चरणों चेला रमै ||४||

भीतर हृदय गुरु सो भले । ताके पाछे रामहिं मिले ।

गुरु रीझे सो कीजै कामा । ता पीछे रीझेगा रामा ||५||

शिष्य सरस्वती गुरु यमुना अंगा। राम मिले सब सरिता गंगा ।

चेला गुरु में गुरु में रामा । भक्ति महातम न्यारा नामा ||६||

गुरु आज्ञा निर्वाह नेम । तब पावे सर्वज्ञी प्रेम ।

सर्वज्ञी राम सकल घट सारा । है सबही में सबसों न्यारा ||७||

ऐसी जाने मन में रहे । खोजे बूझे तासे कहे ।

गुरु महिमा संक्षेपहिं भनी । गुरुकी महिमा अनन्त घनी ||८||

अवतार धरि हरि गुरु करे । गुरु करे तब नारद तरे।

साख पुरातन ऐसी सुनी । बात हमारी गुरु सो बनी ||९||

कीड़ी जैसा मैं हौं दासा । पड़ा रहुँ चरणों पासा ।

गुरु चरणों राखो विश्वासा । गुरुहिं पुरावैं मन की आशा ||१०||

KABIR ARTI साखी

गुरु गोविन्द अरु शिष्य मिलि, कीन्हा भक्ति विवेक ।

त्रिवेणी धारा बहे, आगे गंगा एक ॥१ ॥

गुरु की महिमा अनन्त है, मोसे कही न जाय ।

तन मन गुरु को सौंपि के, चरणों रहुँ समाय ॥ २॥

KABIR ARTI तृतीय गुरु महिमा प्रारम्भः

गुरु पद जप अमृत है बानी । गुरु बिन मुक्ति नहीं रे प्राणी ।

गुरु हैं आदि अन्त के दाता । गुरु हैं मुक्ति पदारथ भ्राता ॥१॥

गुरु गंगा काशी स्थाना । चार वेद गुरुगम से जाना ।

अरसठ तीरथ भ्रमि २ आवे । सो फल गुरु के चरणों पावे ||२||

गुरु को तजे भजे जो आना । ता पशवा को फोकट ज्ञाना ।

गुरु पारस परिसे जो कोई। लोहा ते जिव कंचन होई ||३||

शुकदेव गुरु किये जनक विदेही । वे भी गुरु के परम सनेही ।

नारद गुरु प्रह्लाद पढ़ाये । भक्ति हेतु निज दर्शन पाये ||४||

काक भुसुण्ड शंभु गुरु कीन्हा । आगम निगम सबहिं कहि दीन्हा।

ब्रह्मा गुरु अग्नि को कीन्हा । होय यज्ञ निज आज्ञा दीन्हा ||५||

बशिष्ठ मुनि गुरु किये रघुनाथा । पाये दर्शन भये सनाथा ।

कृष्ण गये दुर्वासा सरना । पाये भक्ति जब तारन तरना।।६।।

नारद उपदेश धीमर से पाये । चौरासी से तुरत बचाये।

गुरु कहै सोई है साँचा । बिनु परचै सेवक है काँचा ।।७।।

कहैं कबीर गुरु आप अकेला । दश अवतार गुरु का चेला।) चेला।

KABIR ARTI साखी

राम कृष्ण से को बड़ा, तिनहुँ तो गुरु कीन्ह ।

तीन लोक के वे धनी, गुरु आगे आधीन ॥१॥

हरि सेवा युग चार हैं, गुरु सेवा पल एक।

तासु पटतर ना तुले, सन्तन किया विवेक।।२।।

KABIR ARTI चतुर्थ गुरु महिमा प्रारम्भ

 

दोहा

बन्दौं चरण सरोज गुरु, मुदमङ्गल आगार ।

जेहि सेवत नर होत हैं, भवसागर के पार ||१||

गुरु के सुमिरण मात्र से, नासत विघ्न अनंत ।

तासे सर्वारम्भ में, ध्यावत हैं सब संत ||२||

गुरु गुरु कहि सब विश्व पुकारे । गुरु सोई जो भर्म निवारे ॥

बहुत गुरु हैं अस जग माहीं । हरें द्रव्य दुख कोउ नाहीं ।।

तासे प्रथम परीक्षा कीजै । पीछे शिष्य होय दीक्षा लीजै ॥

बिन जाने जो कोइ गुरु करहीं । सो नर भवसागर में परहीं ॥

पाखण्डी पापी अविचारी । नास्तिक कुटिल वृत्ति बकधारी ॥

अभिमानी निन्दक शठ नटखट । दुराचार युत अबला लम्पट ॥

क्रोधी क्रूर कुतर्क विवादी । लोभी समता रहित विषादी ।।

अस गुरु कबहुँ भूलि न कीजै । इनको दूरहिं से तज दीजै ॥

निगमागम रहस्य के ज्ञाता । निस्पृह हित अनुशासन दाता ।।

दया क्षमा सन्तोष संयुक्ता । परम विचार मान भव मुक्ता ।।

लोभ मोह मद मत्सर आदी । रहित सदा परमारथ बादी ।।

राग द्वेष दुख द्वन्द निवारी । रहे अखण्ड सत्य व्रत धारी ॥

भद्र वेष मुद्रा अति सुन्दर । गति अपार मति धर्म धुरन्धर ।।

कृपया भक्तन पर करि प्रीती । यथा शास्त्र सिखावें शुभ नीती ॥

KABIR ARTI दोहा

जिनके स्वपनेहु क्रोध उर, कबहुँ न होत प्रवेश । मधुर बचन कहि प्रीति युत, देत सबहिं उपदेश ||३||

“हरे अबोध बोध मद जन के । नासि अशेष क्लेश जीवन के ।।

कृत्याकृत्य विकृत्य कर्म को । न्यायान्याय अधर्म धर्म को ॥

विविध भाँति निश्चय करवाई । भिन्न भिन्न सब भेद लखाई ॥

सत मिथ्या वस्तू परखावैं । सुगति कुगति मारग दरशावैं ॥

तेहि गुरु की शरणागति लीजै । तन मन धन सब अर्पण कीजै ॥

असन बसन बाहन अरुभूषण। सुत दारा निज परिचारक गण ॥

करि सब भेट गुरु के आगे । भक्ति भाव उरमें अनुरागे ।

तन यात्रा निर्वाह के कारण । मांगे देय सो कीजै धारण ।

लै भिक्षुक सम दीन भाव मन । करै प्रणाम दण्डवत् चरणन ।

महायज्ञ को फल वह पावै । सुकृति बन्दि गुरु शीश नवावै ॥

KABIR ARTI दोहा

येहि विधि गुरु के शरण होय, करै निरंतर सेव

गुरु सम जाने और नहिं, त्रिभुवन में कोइ देव ||४||

जिन गुरु को मानुष करि जाने । तिन सबको निरभाग्य अयाने ||

बुद्धि रहित नर पशू समाना । है प्रत्यक्ष बिनु पुच्छ विषाना ||

विश्व विशेष विदित प्रभुताई । गोविन्द से गुरु की है भाई ।।

गोविन्द की माया बस प्राणी । भुगते दुख चौरासी खानी ।।

गुरु प्रताप भवमूल विनाशै । विमल बुद्धि होय ज्ञान प्रकाशै ॥

सुख अखण्ड नर भोगे जोई । सत्यलोक में बासा होई ॥

गुरु से श्रेष्ठ और जग माहीं । हरि विरंचि शंकर कोउ नाहीं ॥

सुहृद बन्धु सुत पितु महतारी। गुरु सम को दूजा हितकारी ।।

KABIR ARTI दोहा 

जाके रक्षक गुरु धनी, सके काह करि और।

हरि रूठे गुरु शरण है, गुरु रूठे नहिं ठौर ||५||

योग यज्ञ जप तप व्योहारा । नेम धर्म संयम अचारा ॥

वेद पुराण कहै गोहराई । गुरु बिन सब निष्फल है भाई ||

गुरु बिन हृदय शुद्ध नहिं होई। कोटि उपाय करै जो कोई ॥

गुरु बिन ज्ञान विचार न आवै। गुरु बिन मुक्ती न कोई पावै ॥

गुरु बिन भूत प्रेत तन धारी । भ्रमे सहस्र वर्ष नर नारी ॥

गुरु बिन यम के हाथ बिकाई। पाय दुसह दुख मन पछिताई ॥

गुरु बिन संसय कौन निवारे । हृदय विवेक कौन विधि धारे ॥

गुरु बिन नहिं अज्ञान विनाशे । नहिं निज आतम रूप प्रकाशे।

गुरु बिन ब्रह्म ज्ञान जो गावें । सो नहिं मुक्ति पदारथ पावें।

 तेहि कारण निश्चय गुरु कीजै । सूर दुरलभ तन खोय न दीजै ॥

KABIR ARTI दोहा

वेद शास्त्र अरु भागवत, गीता पढ़े जो कोय ।

तीन काल संतुष्ट मन, बिनु गुरु कृपा न होय ||६||

अखिल विवुध जगमें अधिकारी । व्यास वशिष्ठ महान अचारी ॥

गौतम कपिल कणादि पतञ्जलि । जैमिन बालमीक चरणन बलि ।।

ए सब गुरु के शरणै आये । तासे जग में श्रेष्ठ कहाये ॥

याज्ञवल्क्य अरु जनक विदेही । दत्तात्रय गुरु परम सनेही ॥

चौबिस गुरु कीन्हे जग माहीं । अहङ्कार उर राख्यो नाहीं ॥

अम्बरीष प्रह्लाद बिभीषन । इत्यादिक जो भये भक्त जन ॥

औरहु यती तपी संन्यासी । ये सब गुरु के परम उपासी ॥

हरि विरंचि शिव दीक्षा लीन्हा । नारद धीमर को गुरु कीन्हा ॥

सन्त महन्त साधु हैं जेते। गुरु पद पंकज सेवहिं तेते ॥

शेष सहस मुख बहु गुण गावे। गुरु महिमा को पार न पावै ॥

KABIR ARTI दोहा

राम कृष्ण से को बड़ा, तिनहूँ तो गुरु कीन ।

तीन लोक के वै धनी, गुरु आगे आधीन ॥७॥

तप विद्या को करि अभिमाना । पाय लक्ष्मी सम्पति नाना ।।

जो नहिं गुरु को मस्तक नावै। सो नर अजगर को तन पावै ।।

निज मुख जो गुरु निन्दा करई । कल्प सहस्र नरक में परई ।।

गुरु गुरु की निंदा सुने जो कोई । राक्षस स्वान जन्म तेहि होई ||

से अहंकार उर धारी । करे विवाद मूढ़ अविचारी ॥

ते नर मरु निरजल बन जाई । तृषित मरे राक्षस तन पाई ।।

जो गुरु को तजि औरहिं ध्यावै । होय दरिद्र अति दुख पावै ।।

बिन दरसन नहिं गुरु के रहिये। यह दृढ़ नियम हृदय में गहिये ॥

जो बिन दरशन करै अहारा । होय व्याधि तन विविध प्रकारा ।।

यथा बिन दरशन करै अहारा। होय व्याधि तन विविध प्रकारा ॥

यथा शक्ति जन चूके नाहीं । होय असक्त दोष नहिं ताहीं ॥

गुरु सन्मुख नहिं बैठे जाई । खाली हाथ हिलावत आई ॥

कुछ और नहीं बनि आवे । पत्र पुष्प फल भेंट चढ़ावे ॥

KABIR ARTI दोहा 

नम्र भाव अति प्रीति युत, चरण कमल शिर नाय ।

जो सतगुरु आज्ञा करे, लीजै शीश चढ़ाय ॥८॥

अति अधीन होय बोले बानी । रंक समान जोरि युग मानी ॥

कबहुँ न बैठो पाँव पसारी । जंघा पद धरि आसन मारी ।।

सन्मुख होय के गमन न कीजै । गुरु छाया पर पाँव न दीजै ।।

गुप्त बात किंचित नहिं राखै । करि छल कपट न मिथ्या भाखै ॥

वेद मंत्र सम कहना माने । गुरु को परमातम सम जाने ||

सत्यासत्य विचार न कीजै । गुरु को कथन मानि सब लीजै ॥

जो ‘कुछ श्रेष्ठ पदारथ पावै । सो गुरु चरणन आनि चढ़ावै ॥

गुरु की अद्भुत है प्रभुताई । मिले सहस्र गुना होय आई ॥

किये यथाविधि गुरु की पूजा । शेष रहे कर्तव्य न दूजा ॥

प्रबल पाप नाशै सब तन के । होय मनोरथ पूरण मन के ॥

सत्यासत्य विचार न कीजै । गुरु को कथन मानि सब लीजै ॥

जो कुछ श्रेष्ठ परदारथ पावै। सो गुरु चरणन आनि चढ़ावै ॥

गुरु की अद्भुत है प्रभुताई । मिले सहस्र गुना होय आई ॥

किये यथाविधि गुरु की पूजा । शेष रहे कर्तव्य न दूजा ||

प्रबल पाप नाशै सब तन के । होय मनोरथ पूरण मन के ॥

जो गुरु को भोजन करवावे । मानो त्रिलोकहिं न्योत जिमावे ||

KABIR ARTI दोहा

गुरु की महिमा अमित है, कहि न सके श्रुति शेष ।

जिनकी कृपा कटाक्ष से, रंकहु होत नरेश ॥१॥

अस प्रभाव है दूसर केहिमा । जस कछु है सतगुरु की महिमा।।

सर्व सिद्धि प्रद अति वरदायक । दुख संकट में परम सहायक ।।

नित उठि पाठ करै जो कोई । सकल पाप छय ताके होई ||

चित चिंता संताप विनाशे । सुख संपति ऐश्वर्य प्रकाशे ।।

महाव्याधि ज्वर आदि निवारी । देय अकाल मृत्यु भय टारी ।।

लहे सकल सुख जे जग केरे । कबहुँ दरिद्र न आवै नेरे ॥

होय अलभ्य लाभ मारग में । पावे मान प्रतिष्ठा जग में ।।

परम मंत्र यह अखिल फल प्रद। हरण सकल भव जन्म मरण गद॥

श्रद्धावान भक्त लखि लीजे । ताको यह गुरु महिमा दीजे ।।

परम रहस्य गूढ़ यह जानी । कहत सबहिं प्रसिद्ध बखानी।।

दोहाः- धन्य मातु पित धन्य हैं, धन्य सुहृद अनुरक्त।

धन्य ग्राम वह जानिये, जहँ जन्मै गुरु भक्त ॥ १०॥

साहेब बंदगी 

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