इस Kabir Satsang में बताई गई हैं की इस संसार सृष्टि में चौरासी लाख जीव-योनियां हैं। उनमें सबसे उत्तम मनुष्य योनि को माना जाता है।क्योंकि सभी योनियों के जीव केवल खाने- भोगने एवं सोने तक सीमित हैं। वे अपने शरीर के अतिरिक्त ज्ञान-ध्यान, आत्मा- परमात्मा की बात नहीं समझते, अतएव उनके कल्याण का भी कोई अर्थ नहीं। परन्तु उत्तम मनुष्य-योनि में खाने-भोगने के अतिरिक्त विवेक-विचार की प्रधानता है
विवेक-विचार की प्रधानता इस Kabir Satsang में
जिससे मनुष्य शुभ कर्म-आचरणों को करता हुआ अपने कल्याण का साधन कर सकता है।इसीलिए सद्गुरु कबीर साहेब मनुष्य को बारम्बार समस्त बुराइयों के प्रति सचेत करते हैं कि वह उनका त्याग करे तो चौरासी के बंधन से छूटे और सद्गति को प्राप्त हो । अज्ञानता के बंधनों से छूटने और ज्ञान-मोक्ष के लिए वे भोले को गुरु मनुष्य की महत्ता बताकर उसे सद्गुरु की शरण में जाने की सीख देते हैं। भूल-भ्रम में पड़े हुए मनुष्य को वे जोर देकर समझाते हुए कहते हैं-“कबहुँ न भयउ संग औ साथा, ऐसेहिं जन्म गमायउ आछा।”
अर्थात् तुम कभी भी विवेकवान संत-गुरुजनों के साथ नहीं हुए, सत्संगति को पहचान-समझ नहीं पाए, बस ऐसे ही व्यर्थ में तुमने इस उत्तम मनुष्य-जन्म को गवां दिया। वे उसे उसके मनुष्य जन्म को सार्थक करने और जन्म-मरण के इस कठिन भवसागर से पार पाने के लिए समझाते हुए कहते हैं कि-
सकलो दुर्मति दूर करु, अच्छा जन्म बनाव ।
काग गौन गति छाड़ि के, हंस गौन चलि आव ॥
अर्थात् समस्त दुर्बुद्धि का त्याग करो और अपना जीवन सुन्दर श्रेष्ठ बनाओ। दुर्गुणों एवं सब बुराइयों के प्रतीक कौवे की चाल एवं दशा को छोड़कर सद्गुणों तथा अच्छाइयों के प्रतीक हंस की चाल (आचरण) में चलते हुए निज आत्मस्वरूप-स्थिति में आओ। यही कल्याण का सरल उपाय है।
कल्याण का सरल उपाय है Kabir Satsang
धर्म के आधार पर राम-रहीम को लेकर झगड़ा करने वाले हिन्दू-मुसलमान दोनों की भूल बताते हुए उन्होंने कहा कि सत्य मर्म न जानने के कारण ही दोनों आपस में लड़-लड़कर मरते हैं। किसी भी प्रकार के दोष, पाप या बुराई में लिप्त रहने वाले हिन्दू-मुसलमानादि को वे उनके हितार्थ उन्हें फटकारते थे। उन्होंने राम-रहीम को एक बताया और घट-घट में रमने वाले अविनाशी चेतन आत्माराम को जानने-समझने के लिए लोगों को प्रेरित किया।
इस Kabir Satsang में आपको बहुत ऐसी जानकारी मिलेगी जो आप नहीं जानते
आत्म-विचार को वे सर्वोपरि मानते थे और उससे अलग हुए को धर्म नहीं कहते थे। उन्होंने पत्थर पानी की पूजा को निरर्थक तथा जीव-हिंसा को सबसे बड़ा पाप बताया। सबके प्रति समता का भाव तथा जीव दया को बड़ा धर्म कहा। उनका सीधा स्पष्ट मत था – ‘जीव दया अरु आतम पूजा | सतगुरु की भक्ति देव नहीं दूजा।’ अर्थात् सब जीवों पर दया, आत्मा की पूजा और सद्गुरु की भक्ति ही सर्वश्रेष्ठ है। यही सच्चा धर्म है। कल्याण- प्राप्ति के लिए उन्होंने व्यवहार-परमार्थ के सुधार की बहुत शब्द-वाणियां कही हैं।
उनमें उन्होंने महादुखदायी माया-मोह, काम, क्रोध, अभिमान, राग-द्वेष एवं परनिंदा आदि दुर्गुणों को त्यागने और परम सुखदायी सत्य, दया, विनम्रता, अनासक्ति, धैर्य, विचार, विवेक एवं वैराग्य आदि सद्गुणों को ग्रहण करने के लिए कहा है। उन्होंने सद्गुरु की सेवा-भक्ति एवं विवेकी संतों की सत्संगति का विशेष निर्देश किया। उन्होंने समझाया कि सद्गुरु के उपदेशानुसार मन- इन्द्रियों को संयमित करके विधिवत् सहज साधना से अपने पवित्र हृदय में परमतत्व-आत्मा का साक्षात्कार होता है।
जिज्ञासुओं एवं मुमुक्षुओं के लिए उनका सीधा उपदेश था- “संसार के हर्ष-शोक को भुलाकर सद्गुरु के शब्द-उपदेशों पर विश्वास करके वैसा ही आचरण करो। दया, क्षमा, सत्य, शील एवं विचारादि सद्गुणों को ग्रहण कर अमरत्व को प्राप्त करो। उन्होंने सब अर्थ विचारकर एक शब्द में सब उपदेश कह दिया कि निशि-दिन अन्तर्यामी राम को भजो तथा सब विषय-विकारों का त्याग करो।”
यथा-
Kabir Satsang के ज़रिये आत्मा और परमात्मा के गुण रहस्य जाने
गुरुमुख शब्द प्रतीत कर, हर्ष शोक बिसराय। दया क्षमा सत शील गहि, अमरलोक को जाय ॥ एक शब्द सब कहा, सब ही अर्थ विचार । भजिये निशिदिन राम को, तजिये विषय विकार ॥
समाज में व्याप्त असत्य, अनाचार, अंधविश्वासों, प्रपंच-पाखंडों एवं अर्थहीन परम्पराओं की उन्होंने निर्भीकतापूर्वक कटु आलोचना एवं भर्त्सना की। वे सर्वत्र सदा सत्य की प्रामाणिक बात कहते थे। सत्य को जानो-मानो और सदा सजग रहते हुए अपने जीवन का कल्याण करो, यही उनका अमृत संदेश था। उनकी अमृतवाणी से जन-जागृति होती गई और उनके सत्यनाम का झंडा फहरता गया। परन्तु उनके सर्वथा खरे वचनोपदेश से धर्म के क्षेत्र में मनमानी करने वाले एवं जनता को बहकाने वाले पंडित-मौलवियों को गहरा धक्का लगा।
धर्म के नाम पर किए जा रहे उनके पाप-कारनामों, प्रपंच-पाखंडों एवं रूढ़ मान्यताओं पर उनके सत्यज्ञान की चोट पड़ने से वे तिलमिला उठे। उन्होंने चिढ़कर सद्गुरु कबीर साहेब के विरुद्ध झूठी बातें गढ़कर एवं उन्हें खूब बढ़ा-चढ़ाकर शिकायत रूप में उस समय के बादशाह सिकन्दर लोदी तथा उसके पीर शेखतकी के सामने रखा। जिसके फलस्वरूप बादशाह सिकन्दर लोदी तथा पीर शेखतकी ने सद्गुरु कबीर साहेब की कठिनतम परीक्षाएं ली कि वे कितने महान हैं और उनका सत्य-मंत्र कितना प्रभावशाली है।
वे परीक्षाएं ‘बावन कसनी’ के नाम से कबीरपंथ में प्रसिद्ध हैं। सद्गुरु कबीर साहेब डगमगाए नहीं और सब कासनियों पर खरे उतरे। सर्व विघ्न-बाधाओं पर विजयी होकर वे गाते-मुस्कराते रहे। कोई उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सका। सब विरोधी उनके सामने नतमस्तक हो गए। उनकी सहजता-
सत्यता के सामने किसी का कोई तंत्र न चल सका, उल्टे उन्हीं के ज्ञान-विचार से सब पराभूत हो गए।
सद्गुरु कबीर साहेब के दिव्य जीवन-दर्शन से प्रायः सभी प्रभावित हुए। इसी से विभिन्न विचारधाराओं के लोग उनके सम्पर्क में आते गए। बड़े-बड़े योगी – नाथपंथियों, वैष्णवों, सूफी संत-फकीरों तथा ज्ञानी भक्तजनों का उनसे सम्मिलन एवं ज्ञान वार्तालाप हुआ, जिसकी कथा कहानियां पढ़ने-सुनने को मिलती हैं। उनसे पता चलता है कि जो भी सद्गुरु कबीर के पास आया या वे जिसके पास गए, वह धन्य हो गया, भ्रम से मुक्त होकर उसने मनुष्य जन्म का सुफल पाया।
सद्गुरु कबीर साहेब महान करुणामय एवं अनंत उपकारी थे। उनमें अपूर्व साहस एवं पुरुषार्थ था। अपने सत्य-ज्ञान के शब्द गुंजाते हुए वे निर्भय चलते रहे। वे न कहीं रुके, न झुके, बस निरंतर आगे बढ़ते गए। इस लोक में उच्च मानवीय आदर्श उपस्थित करने एवं आत्मतत्व के ज्ञान-ध्यान को फैलाने के अपने उद्देश्य में वे सदा संलग्न रहे। जो लोग उनके संग लगते, उनके पुष्कल विचारों को सुनते एवं यथा आचरण (साधना) करते, वे उन्हें ‘साधु’ कहते थे। प्रायः उनके हर शब्द-पद की अंतिम पंक्ति में ‘कहैं कबीर सुनो भाई साधो’ आता है, जो सहज ही सबके अन्तर्मन को लुभाता एवं आनन्दित करता है।
सद्गुरु कबीर साहेब का अपना-पराया कोई न था। बस वे सबके थे और सब उनके अपने। समझने भर को संत भक्तों का समुदाय ही उनका परिवार था, किन्तु उनका किसी से कोई अपना स्वार्थ-मोह न था । इस विस्तृत असार संसार में अहंता-ममता-वासना के जटिल बंधनों में बंधे दुखित जीवों को मुक्ति दिलाने की सत्य ज्ञान-युक्ति बताने से वे समय के सर्वोपरि महापुरुष एवं बंदीछोड़ सद्गुरु कहलाए। उनके पीछे आए सुप्रसिद्ध संत- दादूदास, मलूकदास, दरिया, पलटू जगजीवन, गरीबदास तथा घीसादास आदि ने उनकी बहुत महिमा गाई और उन्हें संत शिरोमणि एवं सत्पुरुष-परमात्मा कहा। सब भ्रम, अंधविश्वासों एवं अयुक्त मान्यताओं से रहित एवं परम सत्य पर आधारित संतमत के वे प्रवर्तक माने जाते हैं।
असंख्य जनों को उन्होंने अज्ञान-मोह की निद्रा से जगाया-चेताया। जाने कितने साधक-शिष्य उनका सत्यज्ञान ग्रहण करके वासनारूप काल-जल से छूटे एवं भवसागर तर गए। उनके कहां-कहां पर कितने शिष्य-भक्त हो गए, इसकी कोई गणना नहीं है। उनके चार प्रमुख शिष्य माने जाते हैं- श्री श्रुतिगोपाल साहेब, श्री भगवान गोस्वामी साहेब, श्री जागू साहेब तथा श्री धनी धर्मदास जी साहेब। इन्हीं महापुरुषों के द्वारा कबीरपंथ आगे बढ़ा, विकासोन्मुख हुआ और इनकी चलती आ रही शाखाओं में होने वाले संत-महंतों के द्वारा बराबर विकसित होता चल रहा है। जिसके परिणाम में आज कबीरपंथ का विशाल स्वरूप स्वदेश एवं
विदेशों तक में देखने को मिलता है। सद्गुरु कबीर साहेब ने स्वयं अपनी शब्द- वाणियों को नहीं लिखा, उनके संत भक्तों ने लिखा और उनका संग्रह किया। सद्गुरु कबीर के नाम पर बना कबीरपंथ उनके शब्द उपदेशों को मानता हुआ सदाचार, आत्म-विचार एवं सहज ज्ञान-साधना पर आधारित है। उसमें सर्वथा शुद्ध सात्विक आहार एवं आचार-विचार के साथ सेवा -बंदगी, सद्भाव, समता, प्रेम, अहिंसा, दया, सत्य आदि मानवीय सद्गुणों की विशेषता है।
जो विद्वान् सद्गुरु कबीर साहेब की गम्भीर शब्द-वाणियों के गूढ़ार्थ को, उनमें प्रयुक्त हुए आध्यात्मिक रूपकों के मर्म को नहीं समझे और कबीर साहेब की निर्मल उच्चस्थिति से भी पूर्णतः अनभिज्ञ रहे, उन्होंने उनको सामान्य रूप में घर- गृहस्थी, स्त्री- बच्चों वाला सिद्ध करने का अनुचित प्रयास किया, जो निश्चित ही भारी अनर्थ एवं अन्याय है। व्यक्तिरूप में सद्गुरु कबीर साहेब अद्वितीय संत थे और उनका व्यक्तित्व एवं कर्तव्य दोनों महान थे। वे जीवन-पर्यंत कनक-कामिनी से दूर रहे और दूसरों को भी भवसागर से पार पाने के लिए कनक कामिनी से सावधान करते रहे। वे कनक कामिनी ( धन-सम्पत्ति एवं कामासक्त नारी) के दोष बताते हुए स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि-
एक कनक अरु कामिनी, तजिये भजिये दूर।
गुरु बिच पाड़ै अन्तरा, जम देसी मुख धूर ॥
एक कनक अरु कामिनी, विष फल उपाय।
देखत ही ते विष चढ़े, चाखत ही मरि जाय ॥
जिन कनक एवं कामिनी के ऐसे भीषण दोष बताकर सद्गुरु कबीर साहेब उनसे दूर रहने का, उनकी आसक्ति में न पड़ने का औरों को उपदेश कर रहे हैं, भला वे स्वयं उनके चक्कर में कैसे पड़ सकते हैं? स्पष्ट है कि उनसे उनका सम्बन्ध या लगाव न था। उनकी निर्मल दृष्टि में माया मोहिनी तुच्छ थी, उन्होंने उसे ठगिनी बताया और कल्याणार्थियों को उसके मोह में न पड़ने की सीख दी। जिस माया ने अपने रूप-जाल से सात द्वीप, नौ खण्ड और समस्त ब्रह्मांड में सबको ठगा एवं अपने वश में किया, वह सद्गुरु कबीर साहेब से हारकर उदास हो गई। उन पर उसका जादू न चला।
संसार का कोई भी प्राणी पदार्थ उन्हें प्रभावित न कर सका, वे सदैव तटस्थ रहे। उनकी समस्त शब्द-साखियां हृदय में विवेक वैराग्य उत्पन्न करती हैं और साधक को जीवन्मुक्ति एवं विदेहमुक्ति की दिशा में ले जाती हैं। इस प्रकार इन सब बातों को देखते-समझते हुए उनका गृहस्थ कहा जाना सर्वथा असंगत एवं अन्यायपूर्ण हैं।
कमाल – कमाली सद्गुरु कबीर के प्यारे शिष्य थे, परन्तु लोगों ने उनका अनन्य शिष्य-भाव न समझकर उन्हें उनके पुत्र-पुत्री के रूप में मान लिया। बीजक में जहां पर जो ‘लोई’ शब्द का प्रयोग हुआ है, जैसे- ‘कहहिं कबीर सुनो नर लोई’ (शब्द-१०४), इसका अर्थ ‘लोगों’ है, परन्तु इसे मन-मति से स्त्री बना
दिया गया। कुछ लोगों ने लोई को उनकी ब्रह्मचारिणी शिष्या कहा और कुछ ने लोई को एक कल्पना का शब्द कहा। किसी ने कुछ कहा तो किसी ने कुछ। समस्त कबीरपंथ ने सद्गुरु कबीर साहेब को विरक्त कहा है और बाहर के भी बहुत से संत-महापुरुषों ने उनके आजीवन विरक्त होने की बात कही है। निस्संदेह वे जीवन पर्यंत अखण्ड वैराग्य में स्थित रहे। उनके बारे में किंवदंतियां कुछ हों, लोग कुछ कहें, परन्तु इससे उनके यथार्थ सत्य स्वरूप में कोई अंतर नहीं पड़ता। उनकी समस्त शब्द-वाणियां उनके विशुद्ध, विवेक वैराग्य की साक्षी स्वरूप हैं।
सद्गुरु कबीर साहेब इस संसार में जल में निर्लिप्त कमल की भांति थे। सांसारिक विषय-वासनाओं से वे सर्वथा परे-अछूते रहे। उन्हें कोई आशा तृष्णा एवं कामना – वासना न थी। वे पूर्ण संतृप्त, असंग एवं निःस्पृह थे। उनके आविर्भाव से लेकर अन्तर्धान होने तक उनका दृश्यमान निष्कलंक पवित्र जीवन सत्य-ज्ञान के तेज से जगमगाता रहा। उनके पावन ज्योतिर्मय स्वरूप की किसी से तुलना नहीं की जा सकती। सद्गुरु कबीर साहेब ने स्वयं ही स्पष्ट शब्दों में अपने बेदाग शरीर एवं विरक्त होने की बात एक शब्द (भजन) में कह दी है, देखिए-
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी, ओढ़ के मैली कीनी चदरिया |
दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया ॥
अर्थात् उस शरीर रूपी चादर को सुर, नर एवं मुनिजन ने ओढ़ा और ओढ़कर मैली कर दी, उसे विनम्र कबीर ने ऐसे यत्न से ओढ़ा कि ज्यों की त्यों उतारकर रख दी। उस पर कोई दाग नहीं लगने दिया। उक्त पंक्तियों को पढ़ने- सुनने के पश्चात सद्गुरु कबीर की पूर्ण यथावत निर्मल स्थिति एवं उनका परम वैराग्यवान स्वरूप के होने के अतिरिक्त उनके बारे में अन्य कुछ होने जैसी सोचने की बात ही नहीं रह जाती। उनकी पवित्रता एवं सत्यता की उक्त उद्घोषणा उन्हें समझने के लिए पर्याप्त है। वस्तुतः उनकी निर्माल्य छवि तथा उनका निर्भ्रात सत्यज्ञान दोनों स्तुत्य हैं।
सद्गुरु कबीर साहेब जीवन पर्यंत अपने सत्य ज्ञानोपदेश से लोगों की भव-पीर मिटाते रहे। उनके जीवन उद्धार का उपाय बताते हुए उनका अनंत उपकार करते रहे। जब उनके शरीर त्याग का समय उन्हें दिखाई पड़ा तो तब उन्होंने काशी छोड़कर मगहर जाने का विचार बनाया। इसका विशेष कारण यह था कि उन दिनों लोगों में यह अंधविश्वास व्याप्त था कि जो काशी में मरे तो मुक्ति पाता है और मगहर में मरे तो गधा होता है या उसे नरक मिलता है।
आज भी कुछ लोग ऐसा मानते हैं। इस भ्रम एवं अंधविश्वास के कारण बहुत से अनाचारी लोग सारी उम्र इधर-उधर पाप-कर्म करते और अंत में काशी में जाकर मरते। अतः लोगों के इस अंधविश्वास एवं भ्रम को दूर करने के लिए सद्गुरु कबीर साहेब काशी छोड़कर मगहर जाने को तैयार हुए।
उनके मगहर जाने पर रोकने-टोकने एवं प्रश्नोत्तर करने वाले बहुत से संत- भक्तों तथा मैथिल ब्राह्मणों को उन्होंने समझाते हुए कहा कि जिसकी निर्मल विवेकसम्पन्न दृष्टि है, जो राम की भक्ति करता है और मेरे या जिसके हृदय में राम बसते हैं, उसके लिए क्या काशी, क्या मगहर तथा क्या ऊसर सब भूमि एक समान है। यदि मुक्ति के लिए कबीर काशी में शरीर छोड़े तो फिर रामभक्ति के सहारे का क्या प्रयोजन रहा? यथा-
क्या काशी क्या मगहर ऊसर, जो पै हृदय राम बसै मोरा।
जो काशी तन तजै कबीरा, तो रामहि कहु कौन निहोरा ॥
बड़ी साफ बात है कि ‘मगहर मरे सो गदहा होय’ वाले अंधविश्वास में पड़कर तो राम का विश्वास खो देना है। यदि कोई मगहर में मरने से गदहा होता है तो उसका राम-भक्ति एवं जीवनभर साधना करने का क्या लाभ हुआ ? सत्य तो यह है सब जगह भक्ति-ज्ञान के मार्ग में मरने वाला ही अमरत्व एवं मुक्ति को प्राप्त होता है। सब जगह पर राम-भक्ति से परम शांति एवं संतोष की उपलब्धि होती है।
इस प्रकार सबको समझाकर सद्गुरु कबीर साहेब मगहर पहुंच गए। उस समय उनकी आयु लगभग एक सौ बीस वर्ष की थी। कहा जाता है कि मगहर में बहुत समय से जो आमी नदी सूखी पड़ी थी वह उनके शुभागमन एवं पुण्य प्रताप से शीतल स्वच्छ जल से पूर्ण हो गई। वे उसी आमी नदी के तट पर जाकर ठहरे। काशी नरेश वीरसिंह बघेल और मगहर के स्थानीय नवाब बिजली खां सद्गुरु कबीर साहेब के परमानुयायी एवं शिष्य थे।
उस समय ये दोनों मगहर में अपनी सेना के साथ सद्गुरु कबीर साहेब की सेवा के लिए पहुंच गए। इसके अतिरिक्त भी बहुत से अन्य लोग वहां जमा हो गए। उन जमा हुए लोगों में हिन्दू उनके मृत शरीर को जलाना और मुसलमान दफनाना चाहते थे। इस पर दोनों वर्गों का परस्पर तनाव था, परन्तु विधि अनुसार कुछ और ही हुआ ।
माघ सुदी एकादशी विक्रम संवत् पन्द्रह सौ पचहत्तर को मगहर में आमी नदी के तट पर एक कुटिया में सद्गुरु कबीर साहेब चादर ओढ़कर लेट गए। कुटिया का द्वार बन्द कर दिया गया। कुछ समय बाद जब कुटिया का द्वार खोला गया तो चादर उठाने पर कबीर साहेब के शरीर के स्थान पर कुछ ताजे फूल मिले। हिन्दू-मुसलमान दोनों ने वे फूल आपस में बांट लिए। फिर उन पर हिन्दुओं ने समाधि और मुसलमानों ने मजार का निर्माण कराया।
ये समाधि और मजार दोनों साथ-साथ मगहर में एक ही प्रांगण में स्थित हैं। लोग दोनों के प्रति श्रद्धा भाव रखते हैं और वहां सद्गुरु को याद कर शीश झुकाते हैं। सद्गुरु कबीर साहेब के अंतर्धान की कथा का स्मरण करता हुआ आज मगहर प्रसिद्ध धार्मिक स्थान है। सद्गुरु कबीर साहेब के प्राकट्य एवं अन्तर्धान की दोनों स्थितियों में उनके
पंचभौतिक शरीर का विवरण नहीं मिलता, जिससे वे लोकोत्तर संत-सद्गुरु सिद्ध होते हैं। सुप्रसिद्ध विद्वान संत-महंतों, आचार्यों एवं भक्तजनों की सुदृढ़ मान्यता है कि सद्गुरु कबीर साहेब का दृश्यमान शरीर अयोनिज एवं दिव्य प्रकाशस्वरूप था। जगत में वे एक ऐसे अद्वितीय परमसंत एवं पूर्ण सच्चे सद्गुरु हुए हैं जो सांसारिक विषय-वासनाओं एवं काल-माया के बंधनों में नहीं बंधे। जन-जन को जगाने – चेताने एवं सत्य धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए ही उनका शरीर था। उनकी अपूर्व जागरूकता, सचेतता एवं सत्यज्ञान की सारगर्भित शब्द साखियाँ मानव को सत्यपथ दर्शाती रही हैं और सदा दर्शाती रहेंगी।
इस Kabir Satsang में जानिये बीजक का सार सिद्धान्त तथा बीजक माहात्म्य
बीजक कहिये साखि धन, धन का कहै संदेश।
आतम धन जेहि ठौर है, बचन कबीर उपदेश ॥ १ ॥
देखे बीजक हाथ लै, पावै धन तेहि शोध ।
याते बीजक नाम भौ, माया मन को बोध ॥ २ ॥
आस्ति आत्मा राम है, माया मन कृत नास्ति ।
याकी पारख लहै यथा, बीजक गुरुमुख आस्ति ॥ ३ ॥
पढ़ें गुनै अति प्रीति युत, ठहरि के करै विचार ।
थिरता बुधि पावै सही, वचन कबीर निरधार ॥ ४ ॥
सार शब्द टकसार है, बीजक याको नाम ।
गुरु की दया से परख भयो, वचन कबीर तमाम ॥ ५ ॥
पारख बिनु परचै नहीं, बिनु सत्संग न जान।
दुविधा तजि निरभै रहै, सोई सन्त सुजान ॥ ६ ॥
नीर छीर निर्णय करै, हंस लच्छ सहिदान ।
दया रूप थिर पद रहै, सो पारख पहिचान ॥ ७ ॥
देह मान अभिमान ते, निरहंकारी होय ।
वर्ण कर्म कुल जाति ते, हंस निनारा होय ॥ ८ ॥
जग बिलास है देह को, साधो करो विचार ।
सेवा साधन मन कर्म ते, यथा भक्ति उरधार ॥ ९
बीजक रमैनी In Kabir Satsang
अंतर जोति शब्द एक नारी । हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी ॥ १ ॥
ते तिरिए भग लिंग अनंता । तेउ न जाने आदिउ अंता ॥ २ ॥
बाखरि एक विधाते कीन्हा। चौदह ठहर पाट सो लीन्हा ॥ ३ ॥
हरि हर ब्रह्मा महंतो नाऊँ । तिन्हि पुनि तीनि बसावल गाऊं ॥ ४॥
तिन्ह पुनि रचल खंड ब्रह्मंडा । छव दरसन छानवे पाखंडा ॥ ५॥
पेटे काहु ना वेद पढ़ाया। सुनति कराय तुरुक नहिं आया ॥ ६ ॥
नारी मोचित गरभ प्रसूती। स्वांग धेरै बहुतै करतूती ॥ ७ ॥
तहिया हम तुम एकै लोहू । एकै प्रान बियापै मोहू ॥ ८ ॥
एकै जनी जना संसारा। कौन ज्ञान ते भयऊ निनारा ॥ ९ ॥
भौ बालक भगद्वारे आया। भग भोगी के पुरुष कहाया ॥ १०॥
अविगति की गति काहु न जानी। एक जीभ कित कहौं बखानी ॥ ११ ॥
जो मुख होय जीभ दस लाखा । तो कोई आय महंतो भाखा ॥ १२॥
साखी of Kabir Satsang
कहहिं कबीर पुकारि के, ई लेऊ व्यवहार ।
राम नाम जाने बिना, भव बूड़ि मुवा संसार ॥ १ ॥
शब्दार्थ – अंतर- जोति-अन्तर्ज्योति, भीतर की ज्योति, ज्ञान- ज्योति, प्रकाश, आत्मा, चेतन। शब्द-ध्वनि, शब्द-शक्ति, वचन ॐकारादि । नारी-माया, कल्पना । त्रिपुरारी तीन पुरों के शत्रु, दैत्यों के तीन पुरों को नष्ट करने वाले महादेव । हरि विष्णु । तिरिये तीनों से। बाखरि-विशाल गृह, भंडार, कोष, ब्रह्मांड। चौदह ठहर-चौदह स्थान, चौदह भुवन अथवा चौदह विद्या। पाट-पाटना, विस्तार करना, फैलाना। महंतो नाऊं=महान नाम। सुनति-सुन्नत, खतना। मोचित-छूटकर, मुक्त होकर । गरभ प्रसूति-गर्भ से बच्चे का जन्म होता है। स्वांग-वेष, प्रदर्शन। करतूती= कर्म । तहिया-तब उस जन्म के समय में। जनी-स्त्री, माया। जना उत्पन्न किया।
निनारा भिन्न, अलग-अलग भौभव, हुआ। भग-योनि। अविगति जिसकी गति न हो, मन-बुद्धि की पहुंच से परे, नित्य, आत्मा कित-कहां ई-यह लेऊ लय होना, नष्ट होना। व्यवहार-सांसारिक आचरण, रीति-रिवाज, काम- धंधा बूड़ि डूबना। मुवा मरना।
टीका- (इस बीजक-रमैनी के शुभारम्भ में सृष्टि-प्रकरण को लेकर प्रथम अनादि आत्मा और माया के सम्बन्ध में कहा गया है कि) अन्तर्ज्योति शब्द और एक नारी माया से विष्णु, ब्रह्मा तथा महादेव उत्पन्न हुए। अभिप्राय है कि सभी के भीतर ज्योतिस्वरूप आत्मा (चेतन पुरुष) है, जो शब्द से बोधित होता है और एक नारी माया (कल्पना, प्रकृति) है। ज्योतिस्वरूप आत्मा और माया से ब्रह्मा, विष्णु तथा महादेव की उत्पत्ति हुई। उन तीनों से असंख्य स्त्री-पुरुष उत्पन्न हुए, परन्तु वे सब भी सृष्टि के आदि अंत को नहीं जान सके ।
ब्रह्मा स्वभावतः रजोगुण प्रधान होने से क्रियाशील थे, इसलिए उन्होंने ब्रह्मांड रूपी एक बाखरी’ (विशाल गृह) का निर्माण किया। उसे चौदह स्थान से पाटा, अर्थात् उसमें चौदह भुवन’ रचे। विष्णु, महादेव तथा ब्रह्मा महान नाम वाले अधिकारी पुरुष हुए। उन तीनों ने अलग-अलग तीन लोक-विष्णु लोक, शिव लोक तथा ब्रह्म लोक बसाए अथवा स्वर्ग, पाताल तथा मृत्यु, तीनों लोकों का स्थापन किया। फिर उन्होंने अनेक खण्ड-ब्रह्माण्डों की रचना की, जिनमें जंगम (चर-जीवित) एवं स्थावर (अचर-जड़) सृष्टि हुई। उनमें छः दर्शन और छानवे पाखण्डों का विस्तार हुआ।
१. यहां पर ‘बाखरी’ का अभिप्राय वैखरी, अर्थात् वाक्शक्ति या वाणी रूप भी समझा जा सकता है। जिसके अनुसार यह अर्थ होता है कि ब्रह्मा ने वेदादि धर्मशास्त्रों का एक विशाल वाणी-कोष तैयार किया, जिसका चौदह विद्याओं के रूप में विस्तार हुआ। यथा- चौदह विद्याएं – पुराण, न्याय, मीमांसा, धर्मशास्त्र, छः वेदांग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण,
निरुक्त, छंद तथा ज्योतिष) और चार वेद ।
२. चौदह भुवन – पृथ्वी से आरम्भ करके सात ऊपर क्रमशः एक-दूसरे के ऊपर- भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्गलोक, महलोंक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक या ब्रह्मलोक तथा अन्य सात पृथ्वी से नीचे की ओर क्रमशः एक-दूसरे के नीचे-अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल।
३. छः दर्शन – सांख्य, मीमांसा, वैशेषिक, न्याय योग और वेदांत । ४. छानवे पाखंड-
योगी जंगम सेवड़ा, संन्यासी दरवेश । छटवां कहिये ब्राह्मण, छौ घर छौ उपदेश ॥ दस संन्यासी बारह योगी, चौदह शेष बखान । ब्राह्मण अठारह अठारह जंगम चौबीस सेवड़ा जान ॥ जैनों में चौबीस तीर्थंकर और बौद्धों में चौबीस बुद्ध माने जाते हैं। (पंचग्रंथी, मानुष विचार)