<ज्ञान गुदड़ी संध्या पाठ>
Gyan Guddadi प्रारम्भ
धर्मदास बिनवे कर जोरी, साहेब सुनिये बिनती मोरी काया गुदड़ी कहो सन्देशा, जासे जिव का मिटे अंदेशा ||
अलख पुरुष जब किया विचारा, लख चौरासी धारा डारा । पाँच तत्त्व की, गुदड़ी बीनी, तीन गुनन से ठाढ़ी कीनी ॥
तामें जीव ब्रह्म और माया, सम्रथ ऐसा खेल बनाया । जीवन पाँच पचीसों लागे, काम क्रोध मोह मद पागे काया गुदड़ी का विस्तारा, देखो संतों अगम सिंगारा ।
चाँद सूरज दो पेबंद लागे, गुरु प्रताप से सोवत जागे शब्द की सुई सुरति का डोरा, ज्ञान की टोभन सिरजन जोरा अब गुदड़ी की करु हुशियारी, दाग न लागे देख विचारी ।।
सुमति का साबुन सिरजून धोई, कुमति मैल को डारो खोई जिन गुदड़ी का किया विचारा, सो जन भेटे सिरजनहारा धीरज धुनी ध्यान घर आसन, सत की कौपीन सहज सिंघासन युक्ति कमंडल कर गहि लीन्हा, प्रेम पावरी मुर्शिद चीन्हा सेली शील
विवेक की माला; दया की टोपी तन धर्मशाला महर मतंगा मत वैशाखी, मृगछाला मन ही को राखी। निश्चय धोती पवन जनेऊ, अजपा जपे सो जाने भेऊ रहे निरन्तर सतगुरु दाया, साधु संगति करि सब कछु पाया ।।
लौ की लकुटी हृदया झोरी, क्षमा खराऊँ पहिर बहोरी। मुक्ति मेखला सुकृत सुमरणी, प्रेम पियाला पीवै मौनी उदास कूबरी कलह निवारी, ममता कुत्ती को ललकारी। युक्ति जंजीर बाँध जब लीन्हा, अगम अगोचर खिरकी चीन्हा ।।
वैराग त्याग विज्ञान निधाना, तत्त्व तिलक दीन्हा निरबाना। गुरुगम चकमक मनसा तूला, ब्रह्म अग्नि प्रगट कर मूला । संशय शोक सकल भ्रम जारा, पाँच पचीसों प्रगटहिं मारा। दिलका दर्पण दुविधा खोई, सो वैरागी पक्का होई।
शून्य महल में फेरी देई, अमृत रस की भिक्षा लेई । दुःख सुख मेला जग का भाऊ, त्रिवेणी के घाट नहाऊ तन मन शोध भया जब ज्ञाना, तब लखि पावे पद निरवाना। अष्ट कमल दल चक्र सूझे, योगी आप आप में बूझे ।।
इंगला पिंगला के घर जाई, सुषमनि नारी रहे ठहराई।
ओऽहं सोऽहं तत्त्व विचारा, बंकनाल में किया संभारा ।। मन को मार गगन चढ़ि जाई, मान सरोवर पैठि नहाई । अनहद नाग नाम की पूजा, ब्रह्म वैराग देव नहिं दूजा ||
छूटि गये कशमल कर्मज लेखा, यह नैनन साहब को देखा । अहंकार अभिमान बिडारा, घट का चौका कर उजियारा ।। चित कर चंदन मनसा फूला, हितकर संपुट करि ले मूला । श्रद्धा चँवर प्रीति कर धूपा, नौतम नाम साहेब को रूपा ।।
गुदड़ी पहिरे आप अलेखा जिन यह प्रगट चलायो भेषा । साहेब कबीर बकस जब दीन्हा सुर नर मुनि सब गुदड़ी लीन्हा ।। Gyan Guddadi पढ़ें प्रभाता, जन्म जन्म के पातक जाता ।
Gyan Guddadi पढ़े मध्याना, सो लखि पावै पद निरवाना || संध्या सुमिरण जो नर करहीं, जरा मरण भवसागर तरहीं । कहैं कबीर सुनो धर्मदासा, Gyan Guddadi करो प्रकाशा
Gyan Guddadi साखी
माला टोपी सुमरणी, सत्गुरु सत्गुरु दिया बक्शीश पल पल गुरु को बंदगी, चरण नमावूं शीश 1
भवभंजन दुःख परिहरण, अम्मर करन शरीर । आदि युगादि आप हो, गुरु चारों युग कबीर ।। बंदीछोर कहाइया, बलख शहर मंझार । छूटे बंधन भेष का, धन धन कहै संसार || मैं कबीर बिचलूं नहीं, शब्द मोर सम्रथ । ताको लोक पठाइ हूँ, जो चढ़े शब्द को रथ ।
वंदना साखी
वारो तन मन धन सबै, पद परखावन हार । युग अनंत जो पचि मरे, बिन गुरु नहिं निस्तार ।। सरवर तरुवर संतजन, चौथा बरसे मेह । परमारथ के कारणे, चारों धारी देह ।। जीवन यौवन राजमद, अविचल रहे न कोय । जो दिन जाय सत्संग में, जीवन का फल सोय ।। सन्ध्या सुमिरन कीजिये । सुरति निरति एक तार । करो अर्पण गुरु चरन में, नाशे विघ्न अपार ।।
Gyan Guddadi दयासागर
।। गुरु दयासागर ज्ञान अग्र, शब्द रूपी सद्गुरुम्। .. तासु चरण सरोज बंदौं, सुखदायक सुख सागरम्।।
योगजीत अजित अम्मर, भाषते सत् सुकृतम्। दयापाल , दयाल स्वामी ज्ञान दाता सुस्थिरम्।।
क्षमा शील संतोष समिता, आनंद रूपी हृदयम्। सहज भाव विवेक सुस्थिर, निर्माया नि:संशयम्।
निर्मोही निर्वैर निर्भय, अकथ कथिता अविगतम्। उपकार एवं उपदेश दाता मुक्ति मार्ग सद्गुरुम् ।।
दासभाव की प्रीति विनती, भक्ति करण करावनम्। चौरासी बंधन कर्म खंडन, बंदीछोर कहावनम्।
त्रिगुण रहीता सत्य वक्ता, सत्यलोक निवासितम्। सत्यपुरुष जहां सत्य साहेब, तहां आप विराजितम्।
युगन-युगन सत्यपुरुष आज्ञा, जीवन कारण पगुधरम्। दीन लीन अचिन्त होय के, जगत में डोलत फिरम्।।
करुणामय कबीर केवल सुखदायक सर्व लायकम। यम भयंकर मान मर्दन, दुःखित जीव सहायकम्।
धर्मदास कर जोरि विनावे, दया करो मन वशकर्म करुं सेवा गुरु भक्ति अविचल, निषदिन अराधों सुमिरनम्
Gyan Guddadi मंत्रयोग नामधुन
जयं करुणामय जय कबीर, सत सुकृत गाहि लागो तीर ।
भवसागर है गहिर गंभीर, खेई उतारे सत्य कबीर ।
जन्म-जन्म की मेटे पीर, ताते सुमिरो सत्य कबीर ।।
धर्मदास गुरु सेवे कबीर, तांते लागे भव से तीर ।
जो जो आवे शरण कबीर, सो सब लागे भव से तीर ।।
आधि व्याधि उपाधि शरीर, यह सब नाशे जपत कबीर ।
काम-क्रोध मद लोभ हैं वीर, यह सब डरते सुनत कबीर ।
सेवक सनतो सुमिरो कबीर, कर्म धर्म की छूटै जंजीर ।
जब बोलो तब बोलो कबीर, जासे पावो हंस शरीर