Kabir Ke Dohe |  संत कबीर दास जी के 50 दोहे Magic

संत Kabir Ke Dohe बहुत ही ज्ञान दायक होते है। हर एक दोहे में बहुत कुछ अर्थ छुपा होता है। यहाँ पाठकों के लिए प्रस्तुत है Kabir Ke Dohe कुछ प्रसिद्ध और कुछ ज्ञान से भरपुर।

Kabir Ke Dohe : संत कबीर दास जी के दोहे 

Kabir Ke Dohe

Kabir Ke Dohe प्राम्भ 

श्वासा की कर सुमिरनो, कर अजपा को जाप ।
परम तत्त्व को ध्यान धर , सोऽहं आपे आप ॥

                                                                सोऽहं पोवा  पवन में, बांधा मेरू सुमेर ।
                                                               ब्रह्मगांठ हिरदय धरो, यहि विधि माला फेर ॥

माला है निज श्वास का, फेरेंगे कोइ दास ।
चौरासी भरमें नहीं, कटे करम की फांस ॥

                                                            सद्गुरु मोहिं निवाजिये, दीजे अम्मर बोल ।
                                                              शीतल शब्द कबीर का, हंसा करें कलोल ॥


हंसा’ मत डरपो काल से कर मेरी परतीत ।
अमरलोक पहुँचाइ हौं, चलो सो भौजल जीत ॥

                                                             भौजल में बहु काग हैं, कोइ कोइ इंस हमार ।
                                                                कहे कबीर धर्मदास सो, खेइ उतारो पार ॥

अविनासी की आरती, गावें सत्य कबीर ।
कहें कबीर सुर नर सुनी, कोइ न लागे तीर ॥

                                                                सांझ भये दिन आथवे, चकई दीन्हीं रोय ।
                                                                 चल चकवा तहँ जाइये, रैन दिवस ना होय ॥

रैन की बिछुरी चाकई, आन मिली परभात ।
जो जन बिछुरे नाम से, दिवस मिले नहिं रात ॥

                                                                   हौं कबीर विचलों नहीं, शब्द मोर सामरथ  ।
                                                                   ताहि लोक पहुँचाइ हौं, चढे शब्द के रत्थ ॥

तर ऊपर धर्मदास है, जती सती को रेख ।
रहता पुरुष कबीर  है, चलता है सब भेष ॥

                                                            भेष बरोबर भेष है, भेद बरोबर नाहिं ।
                                                              तौल बरोबर घुँघची, मोल बरोबर नाहिं ॥

Kabir ke Dohe 

 

kabir ke dohe

पांच तत्वसे है नहीं , स्वासा नहीं शरीर। 
अन्न अहार करता नहीं , ताका नाम कबीर।। 

नाम लिया तीन सब लिया , सकल वेद का भेद। 
बिना नाम नरके गए , पढ़ी – पड़ी चारो वेद।।

साहब से सब होता है , बन्दे से कछु नाहिं। 
राई सो परवत  करे , परवत राई माहिं।।

दुर्लभ मनुष्य जनम है देह न बारम्बार।
तरुवर ज्यों पति झड़े बहुरि न लागे डार ॥1॥

कबीर साहेब कहते है – मनुष्य का जन्म बहुत ही दुर्लभ है मनुष्य का जन्म पाना बहुत ही भाग्य का बात है।  जिस प्रकार डाल से पत्ता टूट कर गिरने के बाद वापस डाल पर नहीं लगता उसी प्रकार मनुष्य का जन्म भी दुबारा बिना सत्कर्म और भजन बिना नहीं मिलता।

सच बराबर तप नहीं झूठ बराबर पाप।
जाके हृदय साँच है ताके हृदय आप॥2॥

कबीर साहेब कहते है – सत्य के बराबर कोई तप नहीं है , और झूठ के बराबर कोई पाप नहीं है , और जिसका ह्रदय साँच है , यानीं जिसके ह्रदय में कोई छल कपट नहीं है , जिसके ह्रदय में सभी के प्रति सम दया और प्रेम है , उसके ह्रदय में मालिक निवास करते है।

साई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाय।
मै भी भूखा ना रहूं साधु न भूखा जाए॥3॥

कबीर साहेब कहते है – मालिक मुझे इतना दीजिये जिसमे कोई कुटुम्ब सम्बन्धी , हो उसकी देख भाल कर सकू और कोई साधु संत मेरे दरवाजे पर आये तो उसे मेरे द्वार से भूखा नहीं जाना पड़े।

माटी कहे कुम्भार से तू क्यों रौदे मोए।
एक दिन ऐसा आएगा मै रौंदूंगी तोए॥4॥

कबीर साहेब कहते है – माटी कुम्भार से कहता है जिस प्रकार तुम मुझे रौद रहे हो एक दिन ऐसा आएगा जिस दिन मई तुम्हे रौंदूंगी ( जब इंसान मरता है तो उसकी शरीर जो मिटटी से ही बनी है वो वापस मिटटी में ही मिल जाती है ) इसी को मिटटी कहता है , के आज इस अभिमान को छोड़ दो क्यूंकि एक दिन तुमको भी मुझ में ही मिल जाना है यानि मिटटी में।

Kabir Ke Dohe

माला फेरत युग गया फिरा ना मनका फेर।
कर का मन डारी दे मन का मनका फेर॥5॥

कबीर साहेब कहते है – यानि हम दुशरो को दिखाते है के हम माला फेर रहे है , लेकिन वो वास्तव में वो एक ढोंग कर रहे है क्यूंकि , सच्ची माला स्वास का होता है , जो आपे आप फिरता है , जो इस माला को जान लिया और फेरने लगा उसका इस संसार के आवागमन से मुक्ति मिल जाती है इसी जाप को ( अजपा का जाप ) कहा जाता है।

धीरे-धीरे रे मना धीरे सब कुछ होए।
माली सींचे सौ घड़ा ऋतू आय फल होय॥6॥

कबीर साहेब कहते है – ऐ मन तुम धीरज रखो , क्यूंकि धीरज से ही तुम्हे उस पद की प्राप्ति होगी जिसके लिए तुम भक्ति कर रहे हो , उदहारण के तौर पर , जिस प्रकार माली हर दिन पानी देता है खाद देता है लेकिन जब फल लगने का  समय आता है तभी फल लगता है , इसलिए कभी भी भक्ति कर रहे है , तो धीरज रखे सही से आंतरिक अभ्यास करते रहे एक दिन सत्यपुरुष का दर्शन जरूर मिलेगा।

क्षीर रूप सतनाम है नीर रूप व्योहार।
हंस रूपी कोई साधुजन है जो शब्द का करत छननहार ॥7॥

कबीर साहेब कहते है – दूध रूपी सत्यनाम है और पानी रूपी संसारी ब्योहार है , कोई कोई बिरला साधु हैं जो इस संसारी मोह माया में से ऊपर उठ कर उस सार रूपी शब्द को अलग करके उसमे लग जाते है।  ओ शब्द , न लिख सकते है और न ही कह सकते है , ओ  अकह है।

Kabir Ke Dohe : संत कबीर दास जी के दोहे

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अकह कहन में कहिये कैसा ।
आदि ब्रह्म जैसा को तैसा ॥8॥

कबीर साहेब कहते है – अकह मतलब जो कहने में नहीं आ सकते , अकह जो है आदि पुरुष है (सत्यपुरुष ) जिन्होंने सारी सृष्टि बनायीं है , उन्होंने ने ही आदि शक्ति माता को भी बनाया है , और आदि शक्ति माता और निरंजन जी मिलकर  ब्रह्मा ,जी को  (रजो गुण ) से  , विष्णु जी को (सत्तो  गुण ) से  और शिव जी को (तमो गुण ) से बनाये उसके बाद से सारी सृष्टि सुरु हुयी।

Kabir Ke Dohe

        सात समंदर की मसी करूँ लेखनी सब बनराई।
धरती सब कागद करूँ तापर गुरु गुण लिखा न जाय॥9॥

कबीर साहेब कहते है – सातो  समुन्द्र को स्याही बनाऊ , सारे पेड़ पौधों को कलम बनाऊ , और पूरी पृथ्वी को कागज बनाऊ फिर भी गुरु का गुण गान नहीं लिखा जा सकता।

श्वास-श्वास में नाम ले बृथा श्वास मत खोए।
न जाने इस श्वास को आवन होए ना होए॥10॥

कबीर साहेब कहते है – हर स्वास में नाम लेने के लिए कहते है , एक भी स्वास खली नहीं जाना चाहिए बिना नाम का , क्यूंकि इस स्वास का कोई भरोसा नहीं है अभी गया तो वापस लौटे या नहीं।

Kabir Ke Dohe

दस द्वारे का पिंजरा तामे पंछी पौन।
रहने को अचरज नहीं जात अचम्भा कौन॥11॥

कबीर साहेब कहते है – इस शरीर को ही कबीर साहेब पिंजरा कहते है इसमें दस द्वार है , २  आँख , २ कान , २ नाक , १ मुँह , १ मल द्वार , १ मूत्र द्वार , कुल हुए ९ , और एक दसवा जो है जो की गुप्त है , उसी द्वार से इस शरीर में प्राण डाला जाता है और उसे बंद कर दिया जाता है , उसी द्वार को खोलने की चाभी सच्चे सद्गुरु के पास होता , जो भक्त सच्ची लगन से अभ्यास करता है , तो सद्गुरु की कृपा से वो  १० वा द्वार खुलता है और वो स्वयं को जान पाता है और उस सत्यपुरुष को देख और जान पता है।

मात पितु गुरु करहिं ना सेवा चारो ओर फिरत पूजत है देवा।
ते नर के काल नचावे आशा दे दे मुआवे॥12॥

कबीर साहेब कहते है – जो इंसान माता पिता और गुरु की सेवा नहीं करता वो चाहे सारे तीर्थ-ब्रत पूजा पाठ करले फिर भी काल कुछ न कुछ आशा दे कर फिर से जन्म मरण में डाल  देगा।

Kabir Ke Dohe 

कथनी अति गुण सी करनी विष की लोए।
कथनी तजि करनी करो तो विष से अमृत होए॥13॥

कबीर साहेब कहते है – सिर्फ कहना गुण  से भी मीठा होता है , और उसे करना जहर से भी ज्यादा कड़वा होता है लेकिन जब कहना छोड़ कर उस काम को करने लगते है तब , वो जहर से अमृत में बदल जाता है।

गुरु को कीजे बंदगी कोटि-कोटि प्रणाम ।
किट ना जाने भृंग को वह ( गुरु ) कर लीजिए आप सामान ॥ 14॥

कबीर साहेब कहते है – गुरु को बंदगी कीजिये करोड़ो बार प्रणाम कीजिये , क्यूंकि गुरू ही ऐसे दानी दाता  है जो शब्द रूपी ज्ञान से अपने शिष्य को अपने जैसे बना लेते है , उसी प्रकार जैसे एक कीट को भृंगी अपने शब्द से अपने जैसा बना देता है।

Kabir Ke Dohe

जगत जनायो जिन्ही सकल सो गुरु प्रगटे आय ।
जिन गुरु आँखिन देखियाँ सो गुरु दिया लखाय ॥ 15॥

कबीर साहेब कहते है – संसार ने जिस परमात्मा का बात करता है ,  वो मेरे गुरु स्वरुप में प्रगट होकर उस सत्यपुरुष का दर्शन करा दिये।

Kabir Ke Dohe

भली भई जो गुरु मिला नातर होती हानि।
दीपक ज्योति पतंग ज्यों पड़तयो पूरा जनि॥ 16॥

कबीर साहेब कहते है – अच्छा हुआ जो गुरु मिले नहीं तो इस भौसागर में मरते जीते रहते , इस प्रकार के दीपक पर प्रकाश के प्रेम में तड़प तड़प कर अपना जान गवा बैठता है।

Kabir Ke Dohe : संत कबीर दास जी के दोहे 

भली भई जो गुरु मिला जासो पाया ज्ञान ।
घही माहि चबूतरा घटही माहिं दिवान ॥ 17॥

ज्ञान प्रकाशी गुरु मिला सोजन बिसरि न जाय।
जब गोविन्द कृपा करी तब गुरु मिलिया आय ॥ 18 ॥

गुरु गोविन्द कर जानिये रहिये शब्द समाय ।
मिले तो दण्डवत बन्दगी पल २ ध्यान लगाय ॥ 19 ॥

गुरु गोविन्द तो एक हैं दूजा सब आकार ।
आपा मेटे हरि भजै तब पावै करतार ॥ 20॥

चकवी बिछुड़ी रैन की आन मिली प्रभात।
जो जन बिछुड़े नाम से दिवस मिले न रात ॥ 21 ॥

कबीर साहेब कहते है – जिस प्रकार चकवी रात में बिछड़ जाने के पश्चात , सुबह आ कर मिल जाती है , लेकिन जो लोग नाम से बिछड़ जाते है ( उस सार नाम ) से उन्हें फिर कोई नहीं बचा सकता और उसे काल खा जाता है।

कहना था सो कह चला अब कछु कहा न जाय।
एक आया दूजा गया दरिया लहर समाय ॥ 22 ॥

बूडा था पर ऊबरा गुरुकी लहरि चमक ।
वेरा देखा झांझरा उतरि भया फरक॥ 23॥

पहिले दाता शिष्य भये तन मन अरप्यो शीश ।
पाछे दाता गुरु भये नाम दियो बखशीश ॥ 24 ॥

Kabir Ke Dohe

राम नामके पटतरे देवे को कछु नाहिं।
क्या ले गुरु संतोषिये हवस रही मनमाहिं ॥ 25 ॥

निज मन तो नीचा किया चरण कमलकी ठौर |
कहैं कबीर गुरुदेव बिन नजर न आवै और ॥ 26 ॥

मन दिया तिन सब दिया मनके लार शरीर ।
अब देवेको कछु नहीं यों कथि कहे कबीर ॥ 27 ॥

तन मन दिया तो भल किया शिरका जासी भार ।
कबहूँ कहै कि मैं दिया घनी सहैगा मार ॥ 28॥

गुरु सिकलीगर कीजिये मनहिं मस्कला देइ ।
मनका मैल छुडाइके चित दर्पण करि लेइ ॥ 29॥

गुरु धोबी शिष कापडा साबुन सिरजनहार ।
सुरति शिला पर धोइये निकसै ज्योति अपार ॥ 30 ॥

Kabir Ke Dohe : संत कबीर दास जी के दोहे

Kabir Ke Dohe

गुरु कुलाल शिष्य कुम्भ हैं, गढ गढ काढै खोट ।
अन्तर हाथ सहार दै बाहर बाहे चोट ॥ 32 ॥

ज्ञान समागम प्रेम सुख दया भक्ति विश्वास।
गुरु सेवा ते पाइये सतगुरु चरण निवास ॥ 33 ॥

गुरु मानुष करि जानते ते नर कहिये अन्ध ।
यहां दुखी संसारमें आगे यमके बन्ध ॥ 34 ॥

गुरुको मानुष जानते चरणामृत सो पानि ।
ते नर नरके जायँगे जन्म जन्म श्वानि ॥ 35 ॥

Kabir Ke Dohe

सुखिया सब संसार है खाये और सोए।
दुखिया दास कबीर है जागे और रोए  ॥36॥

गुरु हैं बडे गोविन्द ते मनमें देख विचार |
हरि सुमरै सो वार है गुरु सुमरे सो पार ॥ 37 ॥

गुरु सीढ़ी ते ऊतरै शब्द बिहूना होय।
ताको काल घसीटि हैं राखि सकै नहिं कोय || 38 ||

अहम अग्नि निशि दिन जरे गुरु सोचा है मान ।
ताको यम नेवता दियो होहु हमार मेहमान ॥ 39 ॥

गुरु पारस गुरु परस है चन्दन बास सुबास |
सतगुरु पारस जीवको दीना मुक्ति निवास ॥ 40 ॥

Kabir Ke Dohe : संत कबीर दास जी के दोहे

गुरु सो भेद जो लीजिये शीश दीजिये दान।
बहुतक भोंदू बहि गये गखि जीव अभिमान ॥ 41 ॥

Kabir Ke Dohe

जब मै था तब हरी नहीं अब हरी है मै नाहीं।
सब अधियारा मिट गया जब दीपक देखा माहि ॥ 42 ॥

कबीर साहेब कहते है – जब मुझ में हम रूपी अहंकार था , तब हरी ( परमत्मा ) मुझ से दूर थे , जब अहंकार को छोड़ा तब हरी मिले , और सब अज्ञानता मिट गया जब अंदर में ज्ञान रूपी प्रकाश को देखा।

गुरु बतावै साधुको साधु कहै गुरु पूज ।
अरस परसके खेलमें भई अगमकी सूज ॥ 43 ॥

यम गरजे बल बाघके कहै कबीर पुकार।
गुरू कृपा ना होत जो तौ यम खाता फार ॥ 44 ॥

अवर्ण वरण अमूर्ति जो कहौं ताहि किन पेख ।
गुरू दयाते पावई सुरति निरति करि देख ॥ 45 ॥

Kabir Ke Dohe

यह धन जो गुरुकी अहै भाग बडे जिन पाय ।
कह कबीर टोटा नहीं जब परे तबहि लखाय ॥46॥

कह कवीर दरगाह सो जेहि उतरी है भार ।
सोइ करै गुरुआइया झकि २ मरे गँवार ॥ 47 ॥

पंडित पढि गुनि पचि मुये गुरु बिन मिलै न ज्ञान ।
ज्ञान बिना नहि मुक्ति है सत्य शब्द प्रमान ॥ 48 ॥

मूल ध्यान गुरु रूप है मूल पूजा गुरु पाव।
मृलनाम गुरु बचनहै सत्य मूल सत भाव॥ 49॥

कबीर साहेब कहते है – वास्तविक ध्यान गुरु का स्वरुप है जो अभ्यास के समय अंदर में देखा जाये , वास्तविक पूजा गुरु चरण है , वास्तविक नाम गुरु के बचन है जो नाम गुरु ने बताया उसी से उधार होगा , सच्चे लगन से गुरु भक्ति यही मुक्ति का आधार है।

Kabir Ke Dohe

जीवन यौवन राजमद अविचल रहा न कोई।
जा दिन जाये सत्संग में जीवन का फल सोए॥ 50॥

कबीर साहेब कहते है – जीवन जवानी धन सम्पति ये सदा नहीं रहता , और ये जीवन का फल भी नहीं है , जिस दिन आप सत्संग में जाते है वही जीवन का फल है।

 

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